100 साल पुरानी सोनकच्छ की मावाबाटी को मिलेगी विशेष पहचान, जीआई टैग की तैयारी…

अपने बेहतरीन स्वाद व अन्य मिठाइयों की तुलना में अधिक दिनों तक सुरक्षित रहने वाली देवास जिले के सोनकच्छ की प्रसिद्ध मावाबाटी देश में अपनी अलग पहचान बना सकती है। इस मावाबाटी के लिए जीआई (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) टैग हासिल करने की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई है।

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आगामी लगभग एक माह में सोनकच्छ की मावाबाटी से जुड़ी विभिन्न जानकारी सहित इसमें उपयोग आने वाली सामग्री दूध, मावा आदि की टेस्टिंग करवाकर रिपोर्ट के साथ फाइल वरिष्ठ स्तर पर सौंपी जाएगी। इस प्रक्रिया के लिए देवास के उद्यानिकी विभाग को जिम्मेदारी सौंपी गई है।

दो दिन पूर्व उज्जैन में आयोजित जीआई टैग संबंधी प्रस्तुतीकरण व परिचर्चा में सोनकच्छ की मावाबाटी के संबंध में जानकारी दी गई। इस दौरान मावाबाटी बनाने वाले एक हलवाई कनछेदीलाल विश्वकर्मा को भी साथ ले जाया गया था।

जीआई टैग मिला तो डेढ़ से दोगुना तक हो सकते हैं दाम

मावाबाटी को जीआई टैग दिलाने के लिए प्रस्तुतीकरण देते समय प्रस्तावक रहे आभा फाउंडेशन देवास के आशीष राठौर के अनुसार जीआई टैग मिलने से मावाबाटी बनाने वाले परिवारों को फायदा मिलेगा। वर्तमान में 300-400 रुपये किलो मिलने वाली मावाबाटी का भाव 500 से 600 रुपये तक पहुंच सकता है।

मिट्टी के पात्र में दी जाने वाली मावाबाटी 10-12 दिनों तक सुरक्षित रहती है। जीआई टैग मिलने से सोनकच्छ की अलग पहचान देश, विदेश में बनेगी। जहां भी मावाबाटी बेची जाएगी, सोनकच्छ के नाम का जिक्र रहेगा।

किसी केमिकल का उपयोग नहीं

सोनकच्छ में बनने वाली वास्तविक मावाबाटी में किसी प्रकार के केमिकल का उपयोग नहीं किया जाता है। इसमें मावे की छोटी गोली बनाकर अंदर सूखा मेवा का उपयोग किया जाता है। इसके बाद इस गोली को एक अन्य बड़ी गोली के अंदर डाला जाता है।

पकाने के लिए लकड़ी की भटि्टयों का उपयोग किया जाता जिसमें आंच मध्यम या कम रखी जाती है। सोनकच्छ में मावाबाटी का इतिहास 100 साल से भी अधिक पुराना है।

 

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