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617 साल पुरानी परंपरा जीवंत: बस्तर दशहरा की निशा जात्रा में 12 बकरों की बलि और तांत्रिक विधि से पूजा संपन्न

बस्तर दशहरे की महत्वपूर्ण रस्मों में से एक निशा जात्रा की रस्म शारदीय नवरात्रि की महाष्टमी पर पूरी हुई। मंगलवार (30 सितंबर) को इस रस्म में 12 बकरों की बलि देकर 617 साल पुरानी परंपरा निभाई गई।

बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव ने आधी रात मां खमेश्वरी की पूजा अर्चना कर इस रस्म को पूरा किया। उन्होंने बुरी प्रेत आत्माओं से राज्य की रक्षा करने देवी से कामना की। वहीं, मां के लिए नमकीन भोग भी बनाया गया।

क्या है निशा जात्रा विधान

निशा जात्रा विधान की शुरुआत करीब 617 साल पहले की गई थी। इस तंत्र विधाओं की पूजा राजा-महाराजा बुरी प्रेत आत्माओं से राज्य की रक्षा के लिए करते थे।

सालों से चली आ रही परंपरा के अनुसार निशा जात्रा विधान को पूरा करने के लिए 12 गांव के राउत माता के लिए भोग प्रसाद तैयार किए। वहीं राज परिवार के सदस्य लगभग 1 घंटे तक पूजा अर्चना किए।

इस विधान को पूरा करने के लिए 12 बकरों की बलि देकर मिट्टी के 12 पात्रों में रक्त भरकर पूजा अर्चना करने की परंपरा है। निशा जात्रा पूजा के लिए भोग प्रसाद तैयार करने का जिम्मा राजुर, नैनपुर, रायकोट के राउत का होता है।

ये समुदाय के लोग ही भोग प्रसाद कई सालों से माता खमेश्वरी को अर्पित कर रहे हैं। राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव ने कहा कि, इस रस्म में मीठा भोग नहीं लगता, बल्कि नमक से बना भोग प्रसाद चढ़ता है।

यह भी जानिए

इस रस्म में बलि देकर देवी को प्रसन्न किया जाता है। मान्यता है कि, देवी बुरी प्रेत आत्माओं से राज्य की रक्षा करतीं हैं। निशा जात्रा की यह रस्म बस्तर के इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

हालांकि, समय के साथ इस रस्म में बदलाव आया है। पहले सैकड़ों भैंसों की बलि दी जाती थी। लेकिन, अब केवल 12 बकरों की बलि देकर परंपरा निभाई जाती है।

आज होगी मावली परघाव की रस्म

महाअष्टमी की रात माता की डोली और छत्र जगदलपुर पहुंच गया है। आज (1 अक्टूबर) की शाम मावली परघाव की रस्म अदा की जाएगी। जिसमें बस्तर राज परिवार के सदस्य माता की डोली और छत्र का स्वागत करने पहुंचेंगे।

जिस रास्ते से माता की डोली और छत्र को लाया जाएगा उस रास्ते में दोनों ओर पुलिस ने बैरिकेड्स लगा रखे हैं। ताकि, भीड़ अंदर न आ सके।

ऐसे होता है देवी का स्वागत

राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव के मुताबिक, सबसे पहले माता को सलामी दी जाएगी। माता को विराजमान करवाया जाएगा। फिर जिया बाबा उन्हें खबर करेंगे कि डोली आ गई है और आपको वहां आना है। आज ही जोगी उठाई की भी रस्म होती है। बस्तर के सभी देवी-देवताओं (देव विग्रह) के साथ मैं वहां पहुंचता हूं।

माता का पूरे सम्मान पूर्वक स्वागत करता हूं। खुद डोली को उठाकर राज महल लेकर आता हूं। मावली परघाव की रस्म भी अदा की जाती है। जब डोली दोबारा उठाई जाती है तो उसी समय बस्तर दशहरा का समापन होता है। करीब 200 की संख्या में पुजारी, सेवादार समेत अन्य लोग दंतेवाड़ा से आते हैं।

पंचमी के दिन दिया जाता है निमंत्रण

मान्यताओं के मुताबिक, माता ने महाराजा को बोला था कि मैं न्योता पंचमी को ही लूंगी। इसलिए पंचमी का दिन विशेष होता है। इसी दिन विशेष पूजा-अर्चना भी की जाती हैं।

राज परिवार के सदस्य माता के दरबार पहुंचते हैं। दर्शन कर पूजा अर्चना करते हैं और अपने साथ राजमहल चलने को कहते हैं। कमलचंद भंजदेव बताते हैं कि माता उनकी कुलदेवी हैं।

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