ये तो पिछली बार भी पहन कर गई थी, इसमें तो मेरी कई फोटोज सोशल मीडिया पर हैं. इस इवेंट के लिए थीम के हिसाब से कुछ नया ले लेती हूं… इसका तो फैशन पुराना हो गया है. बड़े सुने हुए से डायलॉग हैं ना सारे. कपड़े पहनना आजकल अच्छे दिखने और शरीर ढकने से ज्यादा फैशन और सोशल मीडिया की खुराक बन गया है.
फैशन और ऑनलाइन पोस्ट के इस जमाने में सब इसी नियम को फॉलो कर रहे हैं. कभी आप पुराने लोगों से बात करो तो वो यही कहते मिलते हैं, हमारे पास तो केवल दो जोड़ी कपड़े होते थे, दीवाली होली पर एक थान से पूरे घर का कपड़ा सिल जाता था और साल भर की फुरसत . ज्यादा से ज्यादा जन्मदिन पर नया कपड़ा मिलता था लेकिन अब तो लोगों के पास न जाने कितने कपड़े होने के बाद भी लगता है कि अभी अलमारी में कपड़ों की कमी है. इस लाइफस्टाइल ने न सिर्फ जेब का खर्च बढ़ाया है बल्कि पर्यावरण पर भी गहरा असर छोड़ा है.
कपड़ों का पर्यावरण से कनेक्शन
कपड़ा बनाने में पानी, केमिकल और एनर्जी का इस्तेमाल होता है. ट्रेंडी फैशन की वजह से कपड़ों का उद्योग तेजी से बढ़ रहा है. ऐसे में अब फैशन उद्योग के कारण पर्यावरण प्रभावित हो रहा है. रिपोर्ट के अनुसार, फैशन इंडस्ट्री दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी इंडस्ट्री है, जिसकी वजह से पर्यावरण को खतरा है.
आप ऐसे समझिए कि कपास उगाने के लिए जमीन और एनर्जी की जरूरत होती है. उसके बाद दुनियाभर में कपड़ों की बुनाई, कटाई, सिलाई और शिपिंग में भी पैसे के साथ समय और कई प्राकृतिक संसाधन खर्च होते हैं. कपड़ा उद्योग से निकलने वाले कचरे के प्रमुख कारण यह भी है कि कपड़ों में पॉलिएस्टर, नायलॉन और ऐक्रेलिक जैसे सिंथेटिक पदार्थ इस्तेमाल किए जाते हैं.
कुछ कपड़े लकड़ी के गूदे से बनाए जाते हैं, जिसकी वजह से पेड़ों की कटाई होती है. ऐसे में फैशन इंडस्ट्री पेड़ों के लिए भी खतरा है.सस्ते कपड़े भी पर्यावरण पर बहुत बुरा प्रभाव डालते हैं. जेब पर खर्च न बढ़े इस चक्कर में लोग सेल पर या फिर सस्ते बाजारों से खूब ढ़ेर सारा कपड़ा ले आते हैं. वो कपड़े बहुत दिन नहीं चलते हैं और उन्हें लोग फेंक देते हैं.
पर्यावरणविद राजेश सोलमन बताते हैं, कपास की फसल करीब 6 से 8 महीने की होती है तो इस दौरान उसकी सिंचाई में पानी लगता है और कीटनाशक का भी छिड़काव किया जाता है. पानी का बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने से वाटर टेबल नीचे जाता है. कीटनाशक का इस्तेमाल करने से भी पर्यावरण और वाटर टेबल दूषित होता है.
इसके बाद जब कपास से टेक्सटाइल बनाया जाता है तो उस समय डाई का इस्तेमाल किया जाता है. वो भी वाटर टेबल को दूषित करता है. धरती पर पानी की कमी हो रही है और उसके बावजूद भी पानी के जो भी रिसोर्सेस हैं, उनका इस्तेमाल बहुत ज्यादा हो रहा है.
कपड़ा बनने में लगता है कितना पानी?
कपड़ा बनाने में पानी का बहुत ज्यादा इस्तेमाल होता है. यूरोपीय एनवायरमेंट एजेंसी 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार, एक सूती शर्ट बनाने में करीब 2700 लीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि इतना पानी एक व्यक्ति की ढाई साल तक की जरूरतों के लिए पर्याप्त है.
कपड़ों से बढ़ता प्लास्टिक कचरा
नेचर कम्युनिकेशंस जनरल बताता है, केवल भारत में सिंथेटिक कपड़ों की वजह से हर साल 24 लाख टन प्लास्टिक कचरा पैदा हो रहा है. यही चीन में 32 लाख टन, अमेरिका में 28 लाख टन और ब्राजील में साढ़े 6 लाख टन हर साल है.
कुछ रिपोर्ट्स ये भी बताती हैं, फैशन की हमारी ग्लोबल खपत में 400 फीसदी की बढ़त हुई है. फास्ट फैशन इंडस्ट्री जलवायु संकट का बड़ा कारण बन रही है, जो ग्लोबल कार्बन पैद करने के लिए दस फीसदी जिम्मेदार है.
धरती पर हैं पर्याप्त कपड़े
बच्चों की उम्र धीरे-धीरे बढ़ती है तो उनके कपड़ों का साइज भी बदलता है. उन्हें कपड़ों की जरूरत होती है और उनके लिए नए कपड़े लेने ही पड़ते हैं लेकिन ब्रिटिश फैशन काउंसलिंग के हिसाब से हमारी धरती पर इतने कपड़े हो गए हैं कि अगर इस धरती पर रहने वाले इंसान अगले 6 पीढ़ियों तक कपड़े ना लें तब भी उनको पहनने के लिए कपड़ों की कमी नहीं होगी.
ऑनलाइन शॉपिंग ने बढ़ाया कपड़ों का क्रेज
बाजार में आए दिन नए-नए कपड़ों की डिजाइन आ रही है. ऐसे में लोग कुछ दिन पहले ही लिया गया कपड़ा पहनना छोड़ देते हैं. पहले जहां लोग केवल किसी त्योहार या फिर शादी ब्याह के लिए कपड़े खरीदने थे लेकिन अब तो कुछ लोग तीसरे चौथे महीने कपड़े खरीदने लगे हैं तो वहीं कुछ लोग हर महीने कपड़े खरीदते हैं. इसमें ऑनलाइन शॉपिंग का भी बहुत बड़ा रोल है.
सोशल मीडिया पर स्क्रॉल करते समय कई बार कुछ चीज बहुत अच्छी लग जाती हैं और आप लिंक पर चले जाते हैं. ऐसे मैं आपको अगर वहां पर सेल दिख जाए तो फिर क्या ही बात है. कपड़े को कार्ट में ले गए और एड्रेस डाला पेमेंट की और 2 दिन में कपड़ा आपके घर पर पहुंच जाता है. ऐसी सहूलियत मिलने की वजह से भी फैशन के नाम पर ज्यादा कपड़े इकट्ठा करने लगे हैं.
ब्रांड नहीं देते कपड़ों की जानकारी?
अब भले ही थोड़ा बहुत रीसाइकल वीगन या ग्रीन इनवायरमेंट का चलन हुआ हो लेकिन भारत में मौजूद लाखों ब्रांड में बहुत कम ही ऐसे ब्रांड है जो पर्यावरण के अनुकूल कपड़े बनाते हैं. यानी जिन्हें रीसायकल किया जा सके या फिर उनके बनाने का तरीका ही ऐसा है कि उसमें ज्यादा पानी और केमिकल जैसी चीजों का इस्तेमाल नहीं होता है.
शॉपिंग की लत बीमारी?
अमेरिकन साइकाइट्रिक ऑरगनाइजेशन कहता है, शॉपिंग एडिक्शन को कोई बीमारी तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन कई रिसर्च बताती ये ज़रूर कहती हैं कि कुछ लोगों को बहुत ज्यादा शॉपिंग करने का डिसऑर्डर होता है. उनके पास कितने भी कपड़े हो लेकिन उन्हें लगता है कि हर नई जगह पर नए कपड़े के साथ जाया जाए जो कि पर्यावरण के अनुकूल बिल्कुल भी नहीं है. पर्यावरण के साथ जेब पर भी इसका असर पड़ता है.
मनोवैज्ञानिक समीर मल्होत्रा कहते हैं, समाज के अंदर अब टेलरिज्म और कंज्यूमर्स तेजी से बढ़ रहा है. पहले हम जरूरत के हिसाब से सामान खरीदते थे. अब शौक के अनुसार खरीद रहे हैं, शौक का कोई अंत नहीं है. कुछ लोग डिप्रेशन में होते हैं या फिर कुछ लोग जो मन में हीन भावना रखते हैं. कुछ चीजें ऐसी खरीदने लगते हैं, जिनकी जरूरत नहीं होती है. उनको लगता है, अपनी जिंदगी में किसी चीज को तो कंट्रोल कर पा रहे हैं तो ये कहा जाता है कि अगर आपका व्यक्तिव तो मजबूत है तो आपको बहुत दिखावे की जरूरत नहीं पड़ती लेकिन आजकल दुनिया दिखावटी हो गई है. ब्रांडिंग की वैल्यू बहुत ज्यादा हो गई है.
वह बताते हैं कुछ लोगों में Compulsive Buying Disorder भी होता है, जिसमें लोगों को अपने Impulses पर कंट्रोल नहीं है. इसी तरह कुछ लोग ऐसे ग्रुप में जोड़ते हैं, जहां पर दिखावटी चीजें ज्यादा चल रही हैं. उसमें एक अजीब सा कंपटीशन लग जाता है, जिसमें लोग सामने वाले से ज्यादा बेहतर पहने की कोशिश करने लगते हैं. हर बार अलग दिखने के लिए अलग-अलग कपड़े पहने लगते हैं. इस तरह की चीज तब आती है, जब व्यक्ति अंदर से संतुष्ट नहीं रहता है. कुछ लोगों के आसपास ऐसे लोग होते हैं, जो बिना जरूरत की चीजों के बारे में भी उनसे कहते हैं कि इसके बिना आपका गुजारा ही नहीं हो सकता.
सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर की वजह से बढ़ रहा बाजार?
सोशल मीडिया पर तमाम ऐसी इनफ्लुएंसर हैं, जो केवल फैशन ब्लॉग बनाती हैं और उनके करोड़ों में फॉलोअर्स हैं. उन्हें तो नए-नए कपड़े दिखाने के पैसे मिलते हैं लेकिन हमें क्या मिलता है?
राजेश सोलमन कहते हैं, कपड़ा इंडस्ट्री चलाने वाले लोगों की साइकोलॉजी के साथ खेलते हैं. अगर एक ही कपड़ा कोई रिपीट कर रहा है तो उसे ऐसे दिखाते हैं कि वह गरीब है. मार्केटिंग की कारण उन्होंने एक ऐसा इकोसिस्टम बना दिया है कि एक ही तरह का कपड़ा पहनना पिछड़ापन दिखाता है. इस वजह से लोगों की साइकोलॉजी ही ऐसी हो गई है कि उन्हें हर जगह जाने के लिए नए कपड़े चाहिए होते हैं. अगर कोई कपड़ा बार-बार रिपीट नहीं करेगा तो उसे ज्यादा कपड़े चाहिए ही होंगे. इन सब के पीछे फैशन इंडस्ट्रीज हैं, जो अपने बड़े-बड़े विज्ञापनों के जरिए लोगों को खींचती हैं.
मनोवैज्ञानिक समीर मल्होत्रा कहना है मार्केटिंग आपकी जरूरत को आवश्यकता में बदल रही है. मार्केटिंग और ब्रांडिंग इसी आधार पर चल रहा है. कंपनियां देख रही हैं, कस्टमर के पास क्या है,उसे क्या दिया जाए. मार्केट तो इकोनॉमिक्स के हिसाब से चलती है. कई बार हमें कुछ चीजों की जरूरत नहीं होती है लेकिन हम सेल देकर चले जाते हैं. कुछ चीजों की जरूरत तो हमें जिंदगी में नहीं पड़ती लेकिन हम सेल में उसे खरीद लेते हैं. कई बार हमें एक ही चीज की जरूरत होती है लेकिन मार्केट में उसे बाय वन गेट वन फ्री या फिर एक खरीदने पर दूसरे पर 50% का डिस्काउंट मिलता है तो हम बहुत ज्यादा सामान खरीद लेते हैं.
कैसे बचे फैशन और पर्यावरण
कुछ ऐसे भी पदार्थ से कपड़े बनाए जाते हैं, जो पर्यावरण पर बहुत ज्यादा असर नहीं डालते हैं लेकिन सबसे बेहतर विकल्प है, जरूरत से ज्यादा कपड़े ना खरीदें और उन्हें कई बार पहनें.
कुछ कपड़े बहुत बार पहन लेने के बाद मन भर जाता है तो उसे आप अपने दोस्तों या परिवार में किसी को दे सकते हैं.
कपड़े फट जाने पर तुरंत उसे फेंक देने के बजाय उसकी सिलाई कराकर पहनना ज्यादा बेहतर होगा.
हमेशा कोशिश करें कि जब भी कपड़े खरीदे तो अच्छे क्वालिटी के खरीदे ताकि वह लंबे समय तक चल सके.
पर्यावरणविद राजेश सोलमन का कहना है, हमें लोगों को बताना पड़ेगा कि बहुत ज्यादा कपड़े खरीदने की वजह से हमारे नेचुरल सोर्सेस खत्म होते जा रहे हैं. वीडियो या ऑडियो के माध्यम से उन्हें दिखाकर समझाना पड़ेगा कि कैसे हमारे पर्यावरण पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है. उन्हें बताना पड़ेगा कि एक थान कपड़ा बनाने में कितने रिसोर्सेस लगते हैं. इससे पर्यावरण पर क्या-क्या असर पड़ता है? अगर इन चीजों को दिखाकर हाइलाइट करें और प्रचार करें तो इसका असर लोगों पर जरुर पड़ेगा. इसके अलावा ये भी किया जा सकता है कि जिस तरह से एक्टर और एक्ट्रेस से कपड़ों का विज्ञापन कर बताया जाता है कि कपड़े नए ही लेने हैं तो इसी तरह से उनसे प्रमोट कराया जाए कि बहुत ज्यादा कपड़े लेने से क्या नुकसान होते हैं.
समीर मल्होत्रा कहते हैं इसको रोक पाना बहुत मुश्किल काम है क्योंकि इसमें कई सामाजिक और कई मनोवैज्ञानिक पहलू हैं. इससे बचने का तरीका है कि आप थोड़ा सा अध्यात्म और मोरल वैल्यू की तरफ बढ़ें, आप अपनी जिम्मेदारियां के प्रति भी सजग रहें.
वह बताते हैं आजकल लोग जिनसे मिलते भी हैं, उनसे केवल Superficial Connect ही रहता है. उनके बीच में डीपर अंडरस्टैंडिंग, एक-दूसरे की केयर, कंपैशन नहीं होती हैं. इसके लिए जरूरी है, बचपन से लेकर स्कूली शिक्षा तक मोरल एजुकेशन पर ज्यादा ध्यान दें. संस्कार को भी इंपॉर्टेंस दी जाए. बच्चों को ग्रिटीट्यूड जैसी चीज भी सिखाई जाए. आजकल सभी के अंदर संतोष बहुत कम हो रहा है, इस पर भी काम किया जाना जरूरी है. अगर हम ये सब सीखते हैं तो निजी ह्यूमन वैल्यू के साथ जुड़ जाते हैं. कहा जाता है कि हम जितनी अपनी जरूरत के हिसाब से काम करते हैं, उतना हम अपने आपको संपन्न पाते हैं. जितना हम अपने शौक को जरूरतों में कन्वर्ट करने की कोशिश करते हैं, उतना ज्यादा असंतोष, बिना जरूरत की खरीदारी और दिखावा करते हैं. शादियों में भी आजकल सौ तरह के व्यंजन बनते हैं, हर कोई पूरा का भी नहीं पाता है