पुडुचेरी विश्वविद्यालय में छात्रों और संकाय सदस्यों को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सनातन धर्म के पुनरुत्थान, शिक्षा में सुधार और राजनीतिक संयम पर जोर दिया. उन्होंने भारत के प्राचीन शिक्षा केंद्रों का उल्लेख करते हुए शिक्षा के व्यावसायीकरण पर चिंता जताई और गुरुकुल मॉडल को अपनाने का आह्वान किया. उन्होंने राजनीतिक दलों से राजनीतिक तापमान कम करने और राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखने का आग्रह किया और भाषाई विविधता को एकता का प्रतीक बताया.
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा है कि सनातन गर्व फिर से पुनर्निर्मित हो रहा है. मंगलवार को पुडुचेरी विश्वविद्यालय में छात्रों और संकाय सदस्यों को संबोधित करते हुए धनखड़ ने कहा कि जो खो गया था, उसे अब और भी मजबूत संकल्प के साथ फिर से बनाया जा रहा है. इसके साथ-साथ उन्होंने राजनीतिक दलों को सलाह देते हुए कहा कि पार्टियों को राजनीति का तापमान कम करना चाहिए. भाषाओं के आधार पर हम कैसे बंट सकते हैं? हमारी भाषाएं समावेशिता की प्रतीक हैं.
उन्होंने कहा कि भारत की शैक्षणिक भूगोल और इतिहास, तक्षशिला, नालंदा, मिथिला, वल्लभी जैसे महान शिक्षा केंद्रों से सजे हुए थे. उस कालखंड में इन संस्थानों ने दुनिया के सामने भारत को परिभाषित किया. दुनिया भर के विद्वान यहां ज्ञान साझा करने और भारतीय दर्शन को समझने आते थे. परंतु, कुछ तो गलत हुआ. नालंदा की नौ मंजिला पुस्तकालय के बारे में सोचिए, 1300 साल पहले धर्मगंज नामक वह पुस्तकालय खगोलशास्त्र, गणित और दर्शनशास्त्र के समृद्ध ग्रंथों से भरा था. दो चरणों की आक्रमण लहरों में पहले इस्लामी आक्रमण और फिर ब्रिटिश उपनिवेशवाद भारत की ज्ञान परंपरा को गहरी चोट पहुंची.
खिलजी ने अमानवीयता और बर्बरता का प्रदर्शन किया- उपराष्ट्रपति
उपराष्ट्रपति ने कहा कि लगभग 1190 के आसपास बख्तियार खिलजी ने अमानवीयता और बर्बरता का प्रदर्शन किया. उसने सिर्फ किताबें नहीं जलाईं, बल्कि भिक्षुओं की हत्या की, स्तूपों को नष्ट किया और भारत की आत्मा को रौंदने का प्रयास किया, यह जाने बिना कि भारत की आत्मा अविनाशी है. आग कई महीनों तक जलती रही. नौ लाख ग्रंथ और पांडुलिपियां जलकर भस्म हो गईं. नालंदा केवल एक विचार का केंद्र नहीं था, वह मानवता के लिए ज्ञान का जीवंत मंदिर था.
राजनीतिक संवाद और संयम पर जोर देते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि मित्रों, हमें राष्ट्रीय मानसिकता में भी बदलाव लाने की आवश्यकता है. राजनीतिक व्यवस्था की बात करें तो हम केवल मतभेद के लिए मतभेद करते हैं, समाधान के लिए नहीं. किसी और के द्वारा दी गई अच्छी बात भी हमें तभी गलत लगती है क्योंकि वह हमारे विचार से नहीं आई. यह हमारे वेदांत के अनंतवाद की भावना के विपरीत है. हमें अभिव्यक्ति, वाद-विवाद और संवाद की दिशा में बढ़ना होगा. हम राजनीतिक तापमान बढ़ाने को आतुर हो गए हैं.
उपराष्ट्रपति बोले- टकराव की कोई जगह नहीं होनी चाहिए
जलवायु परिवर्तन तो वैसे भी तापमान बढ़ा ही रहा है. फिर हम क्यों अपने धैर्य के हिमखंडों को पिघलाएं? क्यों अधीर होकर अपनी सभ्यतागत और आध्यात्मिक आत्मा से दूर जाएं? मैं सभी राजनीतिक नेताओं से अपील करता हूं. राजनीति का तापमान घटाएं. टकराव की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. संविधान सभा ने हमें विघटन और अवरोध का रास्ता नहीं सिखाया है. आज जब भारत उन्नति के मार्ग पर है और सारी दुनिया हमारी ओर देख रही है, ऐसे में हमें राष्ट्रीय हित और विकास की भावना से संवाद करना होगा.
शिक्षा के बाजारीकरण पर चिंता व्यक्त करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा, एक समय था जब शिक्षा और स्वास्थ्य को समाज सेवा का माध्यम माना जाता था. जिनके पास संसाधन होते थे, वे समाज को लौटाने के लिए इन क्षेत्रों में योगदान देते थे, लाभ के लिए नहीं. यह हमारी प्राचीन परंपरा थी. आज शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती वाणिज्यिक सोच के चलते हमें मूल्यों की ओर लौटना होगा. हमारी शिक्षा व्यवस्था भारत के पारंपरिक गुरुकुल मॉडल से प्रेरित होनी चाहिए, जिसे भारतीय संविधान की 22 लघु चित्रों में स्थान मिला है. शिक्षा केवल ज्ञान प्राप्ति नहीं है, उसमें चरित्र निर्माण भी होना चाहिए. आज जो वाणिज्यिक मॉडल उभर रहा है, वह शिक्षा को सेवा के स्वरूप से दूर कर रहा है. मैं कॉरपोरेट जगत से अपील करता हूं, मानसिकता में बदलाव लाएं. भारत हमेशा से परोपकार की भूमि रहा है. अपने CSR संसाधनों को समाहित कर ग्लोबल उत्कृष्टता के संस्थान बनाएं जो बैलेंस शीट से परे सोचें.
एक छोटा प्रयास बड़ी उपलब्धि बन सकता है
पूर्व छात्रों के योगदान की महत्ता पर बल देते हुए उन्होंने कहा, अगर आप दुनिया के विकसित लोकतंत्रों को देखें तो पाएंगे कि वहां विश्वविद्यालयों के एंडोमेंट फंड अरबों डॉलर में हैं. एक विश्वविद्यालय का फंड 50 अरब डॉलर से अधिक है. माननीय कुलपति जी, शुरुआत कीजिए. इस विश्वविद्यालय के हर पूर्व छात्र से अपील करें कि वे इसमें योगदान दें. बच्चों, राशि का आकार महत्वपूर्ण नहीं है. भावना महत्वपूर्ण है. वर्षों में इसका प्रभाव आप देखेंगे न केवल फंड बढ़ेगा, बल्कि पूर्व छात्रों में अपने संस्थान के प्रति लगाव भी गहराएगा. यह एक छोटा कदम हो सकता है, लेकिन जैसे नील आर्मस्ट्रांग ने चंद्रमा पर कदम रखते हुए कहा था. यह एक छोटा कदम है, पर मानवता के लिए एक विशाल छलांग. वैसे ही यह एक छोटा प्रयास बड़ी उपलब्धि बन सकता है.
हम भाषाओं के आधार पर कैसे बंट सकते हैं? बोले उपराष्ट्रपति
भारतीय भाषाओं की समावेशिता पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि हम भाषाओं के आधार पर कैसे बंट सकते हैं? कोई देश भारत जितना भाषाई समृद्ध नहीं है. संस्कृत आज वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण है. तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, ओड़िया, मराठी, पाली, प्राकृत, बंगाली, असमिया, ये 11 भाषाएं हमारी शास्त्रीय भाषाएं हैं. संसद में 22 भाषाओं में सदस्य संवाद कर सकते हैं. बच्चों, हमारी भाषाएं समावेशिता की प्रतीक हैं. सनातन धर्म हमें साथ रहने की, एकत्व की शिक्षा देता है. तो फिर यह समावेशिता कैसे विभाजन का कारण बन सकती है? मैं सभी से अपील करता हूं आत्मचिंतन करें, गौरवमई अतीत को देखें, बच्चों का भविष्य सोचें और इस तूफान से ऊपर उठें.