पत्रकार पर दबिश: जब खाकी वर्दी को ‘जाति’ और ‘पत्रकारिता’ एक साथ खटक गई!

Uttar Pradesh:  इटावा में पत्रकारिता के माथे पर एक नया बट्टा लगता दिख रहा है, जहां खाकी वर्दी ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए एक पत्रकार के घर पर ऐसी ‘दबिश’ दी है, मानो उसने देश का सबसे बड़ा ‘आतंकवादी’ अपराध कर दिया हो. मामला बकेवर के दादरपुर भागवत कांड की कवरेज से जुड़ा है, जिसमें पत्रकार असित यादव ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए खबर को सभी चैनलों और अखबारों तक पहुंचाया था. लेकिन बसरेहर के थानेदार सौरभ सिंह को शायद यह ‘पत्रकारिता’ रास नहीं आई, और वे असित यादव के घर ऐसे जा धमके, जैसे उन्होंने कोई ‘व्यक्तिगत जंग’ छेड़ रखी हो.

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यह घटना न केवल पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर सीधा हमला है, बल्कि यह उस मानसिकता को भी उजागर करती है, जो ‘जाति’ और ‘सत्ता के नशे’ में चूर होकर अपने संवैधानिक कर्तव्यों को भूल जाती है. क्या अब पत्रकार भी अपनी ‘जाति’ देखकर खबरें कवर करेंगे? क्या खबर छापने से पहले पत्रकार को यह सोचना पड़ेगा कि उसकी ‘जाति’ सत्ताधीशों को पसंद आएगी या नहीं? पत्रकार भाइयों ने बिल्कुल सही कहा है कि हमारी कोई जाति नहीं होती, हमारी एकमात्र जाति ‘पत्रकार’ है. लेकिन दुर्भाग्यवश, कुछ ‘खाकीधारी’ इस सच्चाई को पचा नहीं पा रहे हैं.

यह विडंबना है कि एक तरफ हम ‘नया भारत’ बनाने की बात करते हैं, वहीं दूसरी तरफ हमारे ही ‘रक्षक’ जातिगत भेदभाव और सत्ता के दुरुपयोग से समाज को कमजोर करने में लगे हैं, बात कथावाचक की जाति से शुरू हुई थी, और अब ‘पत्रकारों की जाति’ तक आ पहुंची है. यह सिलसिला अगर ऐसे ही चलता रहा, तो जल्द ही ‘यादव भागवत नहीं कह सकता’ से लेकर ‘यादव पत्रकारिता नहीं कर सकता’ जैसे फरमान भी जारी हो सकते हैं. और यह सिर्फ यादव समुदाय का मुद्दा नहीं है, आज एक यादव पत्रकार को सताया जा रहा है, कल किसी और ‘जाति’ के पत्रकार की बारी आ सकती है. यह आग किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं रहेगी, यह पूरे पत्रकार बिरादरी और अंततः देश की एकता को कमजोर करेगी.

इस पूरे प्रकरण पर श्रीमान वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक इटावा से यह ‘आरजू’ की गई है कि वे अपने थाना प्रभारी बसरेहर को ‘अवगत’ कराएं कि पत्रकारों को बेवजह सताना बंद किया जाए. यदि फिर भी यह ‘सत्ता का दुरुपयोग’ जारी रहता है, तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रदेश और देश में भारी तादाद में यादव लोग पत्रकारिता से जुड़े हैं, और यह ‘गलत संदेश’ देश की एकता को ‘खंड-खंड’ कर देगा. लोकतंत्र में पत्रकारिता चौथा स्तंभ है, और अगर इस स्तंभ को ही ‘जातिगत’ और ‘सत्तागत’ हथियारों से तोड़ने की कोशिश की जाएगी, तो इसका खामियाजा पूरे समाज को भुगतना पड़ेगा. क्या यह उचित नहीं होगा कि पुलिस अपने ‘अपराध’ रोकने के मूल कार्य पर ध्यान दे.

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