जब ब्लड ग्रुप न मिले, जब परिवार में कोई अंगदान लायक न हो, तब भी उम्मीद खत्म नहीं होती. क्योंकि अब भारत में एक नई सोच धीरे-धीरे जड़ें जमा रही है, वो है स्वैप ट्रांसप्लांट. जानिए- क्या है ये नया मॉडल जिससे बच रहीं जिंदगियां
हाल ही में प्रकाशित The Lancet Regional Health की स्टडी के मुताबिक भारत में हर 50वां किडनी ट्रांसप्लांट अब ‘स्वैप’ मॉडल के जरिए हो रहा है यानी मरीज को जो अंग मिला. वो उनके किसी रिश्तेदार ने नहीं, बल्कि किसी और के रिश्तेदार ने दिया. बदले में उनके परिजन ने किसी तीसरे मरीज की जान बचाई.
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— India 2047 (@India2047in) July 4, 2025
क्या है ये ‘स्वैप ट्रांसप्लांट’ तरीका?
ये वो तरीका है जब दो या उससे ज्यादा परिवार मिलकर ‘अदला-बदली’ करते हैं. मान लीजिए, राम अपनी पत्नी को किडनी देना चाहता है लेकिन मैच नहीं बनता. वहीं श्याम भी अपनी मां को देना चाहता है लेकिन यहां भी मैच नहीं है. दोनों के डोनर एक-दूसरे के मरीज से मेल खाते हैं तो वो आपस में अंग अदला-बदली कर लेते हैं. इससे दोनों मरीजों को बिना नेटवर्क नई जिंदगी मिलती है
2100 से ज्यादा जिंदगियां बचीं
स्टडी के अनुसार पिछले दो दशकों में 1840 मरीजों को किडनी और 265 को लिवर स्वैप के जरिए मिला. इनमें से ज़्यादातर मामलों में ब्लड ग्रुप न मिलने की वजह से स्वैप किया गया लगभग 87% केस ऐसे ही थे. कुछ मामलों में HLA मैचिंग या सेंसिटाइजेशन जैसी मेडिकल बाधाएं सामने आईं, जहां यह मॉडल कारगर साबित हुआ.
2 से लेकर 10 परिवारों तक ने किया अंगों का ‘एक्सचेंज’
1594 मामलों में दो परिवारों के बीच अदला-बदली हुई.
147 मामलों में तीन परिवार
44 मामलों में चार परिवार
सभी 10 मामलों में 10 परिवारों ने मिलकर अंगदान किया यानि एक चेन बनी, जो एक नहीं, कई मरीजों की जान बचा गई. लेकिन आंकड़ों की तस्वीर में एक सामाजिक सच भी है. स्टडी में एक बात बहुत साफ निकलकर आई. महिलाएं ज्यादा अंग दान कर रही हैं, वहीं अंग प्राप्त करने में पुरुष ज्यादा आगे हैं. 82% किडनी मरीज पुरुष, लेकिन 86% डोनर महिलाएं थीं. लिवर मामलों में भी यही ट्रेंड रहा जिसमें 222 पुरुष मरीजों के मुकाबले 70% डोनर महिलाएं थीं. यानी अंगदान में आज भी महिलाएं आगे हैं भले वो मरीज न हों.
अभी सिर्फ 2% ट्रांसप्लांट स्वैप से, दुनिया से काफी पीछे है भारत
जहां अमेरिका में 16.2% और यूरोप में 8% जीवित डोनर किडनी ट्रांसप्लांट स्वैप के जरिए होते हैं. वहीं भारत में यह आंकड़ा सिर्फ 2% है. इसकी सबसे बड़ी वजह है. राष्ट्रीय स्तर पर कोई संगठित स्वैप प्रोग्राम का न होना. आज भी ज़्यादातर स्वैप ट्रांसप्लांट निजी अस्पतालों में होते हैं. सरकारी अस्पतालों की भागीदारी बहुत सीमित है.
गुजरात और महाराष्ट्र बने ‘स्वैप’ में लीडर
स्टडी में पता चला कि गुजरात और महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा स्वैप ट्रांसप्लांट हुए हैं. इसका कारण है कि वहां की बेहतर नेटवर्किंग, अस्पतालों की मेडिकल और कानूनी तैयारियां और मरीजों को जोड़ने के लिए बनाई गई रणनीतियां. अगर भारत को इस मॉडल में आगे बढ़ना है तो ज़रूरत है एक नेशनल स्वैप ट्रांसप्लांट रजिस्ट्री की. ‘वन नेशन, वन स्वैप सिस्टम’ के तहत एक ऐसा नेटवर्क जिसमें हर राज्य, हर अस्पताल जुड़े और जरूरतमंद को सबसे तेजी से उपयुक्त डोनर मिले.