पवित्र सावन का महीना जारी है. जलाशयों से शिवालयों तक दिखाई दे रहे हैं जत्थे ही जत्थे. आसमान जल से भरे बादलों से ढका हुआ है, धरती पर सावन की झड़ी लगी हुई है. कभी उमस है, कभी तपिश तो कभी रिमझिम-रिमझिम.
फिर भी महादेव शिव को मन बसाकर उनके अभिषेक के लिए कांवड़ लेकर चले शिवभक्तों की भक्ति की थाह पाना कठिन है. वह चले जा रहे हैं, बिना रुके-बिना खके. अपनी कांवड़ को कांधों पर लटकाए, अपने शिवालय की ओर… जहां महादेव उनकी प्रतीक्षा में हैं, और सड़क के किनारों पर चल रहे इन श्रद्धालुओं के भक्त हृदय का भाव ऐसा है कि अपने शिव के ही समान वे भी उनके ही नामधारी हो जाते हैं और ‘भोले’ कहलाते हैं.
शिव को समर्पित और कांवड़ लेकर जल लेने जा रहे कांवड़िये शिव स्वरूप ही हो जाते हैं. रावण संहिता में इस विषय में आया है कि जो भक्त शिव का अनवरत नाम जप करता रहता है और उनका ही ध्यान करता रहता है, वह खुद भी शिव के समान ही हो जाता है. इसलिए शैव नागा साधुओं को आप देखें तो वह अपने आप में शिवजी की ही छाया नजर आते हैं.
कांवड़ यात्री कहलाते हैं भोले
कुछ अराजक घटनाओं को छोड़ दें तो महादेव के वक्त वाकई होते ‘भोले’ ही हैं. मन का विश्वास जब एक ऊंचाई पर पहुंच जाता है तो इसे सिर्फ भक्त और भगवान ही समझ सकते है, बीच की कड़ी के लोग इसे या तो नकार देते हैं, या फिर लीला कहकर आनंद लेते हैं. कांवड़ यात्रा शिव भक्तों की ओर से अपने शिव के लिए की जा रही एक’लीला’ ही तो है, जहां कंधे पर आस्था के दंड में सिर्फ अभिषेक के लिए गंगाजल से भरे कलश नहीं बंधे हैं, बल्कि एक ओर बंधा है समर्पण और दूसरी ओर बंधी है भक्ति.
फिर क्या फर्क पड़ता है कि कांवड़ यात्रा का जिक्र किसी पुराण में मिलता है या नहीं, अगर महादेव शिव सिर्फ ‘एक लोटा जल’ से विष्णु द्रोही रावण पर प्रसन्न हो सकते हैं तो हम तो रामजी के बालक और शिवजी के दास हैं, हम पर शिव क्यों न प्रसन्न होंगे? जरूर होंगे.
पौराणिक ग्रंथों में कांवड़ यात्रा?
वाकई में कांवड़ यात्रा का जिक्र किसी पौराणिक ग्रंथ में सीधे तौर पर नहीं मिलता है. इसका भी स्पष्ट रूप से कोई जिक्र नहीं है कि किसने पहली बार कांवड़ यात्रा शुरू की थी, लेकिन लोक व्यवहार में महाबली रावण, महाविष्णु के छठें अवतार भगवान परशुराम, अगस्त्य ऋषि, महर्षि मार्कंडेय, महारथी कर्ण और 61 नयनार संतों में से एक संत कनप्पा जैसे कई नाम शामिल हैं, जिन्होंने महादेव शिव को बड़ी सरल-सहज और आसान विधि से पूजन कर प्रसन्न किया था. रावण और भगवान परशुराम द्वारा तो शिवजी के लिए कांवड़ लाकर भी उनका जलाभिषेक करने का प्रसंग लोककथाओं में मिलता है, हालांकि पुराणों में हर जगह इनके द्वारा की गई विधिवत पूजा का ही वर्णन मिलता है, जिसमें पंचोपचार पूजन से लेकर, षोडशोपचार पूजन तक का वर्णन मिलता है, फिर भी कांवड़ द्वारा जल लाकर शिवजी के अभिषेक का वर्णन नहीं मिलता है.
राम कथा में मिलता है कांवड़ शब्द का जिक्र
हालांकि कांवड़ शब्द का जिक्र रामायण में मिलता है. जहां राजा दशरथ द्वारा गलती से श्रवण कुमार की हत्या हो जाती है. इस प्रसंग में जब श्रवण कुमार के चरित्र का वर्णन आता है तब कांवड़ का जिक्र होता है. जहां पता चलता है कि श्रवण कुमार अपने अंधे माता-पिता को कांवड़ में बिठाकर उन्हें तीर्थ यात्रा पर ले जाता है. कांवड़ असल में तराजू जैसी आकृति का एक नमूना होता है. श्रवण ने अपने माता-पिता को दोनों ओर बिठा लिया और कांवड़ कंधे पर रखकर चला.
प्राचीन काल की तीर्थ यात्रा की परंपरा
प्राचीन काल में तीर्थयात्रा का एक नियम होता रहा है, जिस तीर्थ में जाते हैं, वहां का जल लेकर आगे बढ़ते हैं. इस तरह हर तीर्थ का जल इकट्ठा होता जाता है. तीर्थ यात्रा का आखिरी पड़ाव गंगा सागर या फिर सागरतट पर बसा कोई तीर्थ होता था. रामायण काल में सोमनाथ और प्रभास तीर्थ का बहुत महत्व था, जो कि सागर तट पर था. इसी तरह गंगासागर तीर्थ जहां कपिल मुनि का आश्रम था, वह भी अंतिम तीर्थ हुआ करता था. श्रद्धालु इन अंतिम तीर्थों में पहुंचकर सभी तीर्थों का जल चढ़ाया करते थे. श्रवण कुमार के माता-पिता के पास एक छोटे कमंडल में सभी तीर्थों का जल था, लेकिन अयोध्या की बाहरी सीमा पर श्रवण कुमार की मृत्यु होने के बाद उन्होंने भी प्राण त्याग दिए थे.
कांवड़ यात्रा और लोककथाएं
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तीर्थ क्षेत्र में दशानन रावण से जुड़ी कई लोककथाएं प्रचलित हैं. यहां नोएडा के पास बिसरख गांव को रावण की जन्मस्थली बताया जाता है. मेरठ को मयराष्ट्र बताते हुए उसे रावण की ससुराल बताया जाता है. यहीं बागपत स्थित पुरा महादेव मंदिर को लेकर मान्यता है कि यहां पर खुद रावण ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर शिवजी का जलाभिषेक किया था, जबकि रावण से भी सैकड़ों वर्ष पहले भगवान परशुराम ने इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की थी और 108 कलश से उनका अभिषेक किया था.
भगवान परशुराम का कांवड़ से संबंध?
हालांकि सीधे तौर पर किसी पौराणिक संदर्भ में इन स्थानों का जिक्र नहीं मिलता है. फिर भी इन जगहों का मान्यताओं और लोककथाओं में परशुराम और रावण के नाम कैसे जुड़ गए, इस बारे में कहना मुश्किल है. भगवान परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों को जीतकर सारी पृथ्वी जीत ली थी. फिर शिव जी ने उन्हें रक्तपात से रोका और अगले अवतार की प्रतीक्षा करने के लिए कहा. तब परशुराम जी ने सारी पृथ्वी भगवान शिव, जो उनके गुरु भी थे उन्हें दान कर दी और तपस्या के लिए महेंद्र पर्वत पर चले गए. शिव जी ने अपना फरसा सागर में फेंक दिया और फरसा जहां गिरा, वहां जल दोनों तरफ किनारे हट गया और जो भूमि बाहर आई उसे केरल कहा गया.
दक्षिण भारत के शैव संप्रदाय में प्रसिद्ध है कथा
परशुराम जी ने वहां शिवलिंग स्थापित किया और सागर से कलश भरकर जल लाते थे और उनका अभिषेक करते थे. केरल के वडक्कूनाथ मंदिर के शिवलिंग की स्थापना परशुराम द्वारा ही बताई जाती है. संभवतः इसी प्रसंग ने उन्हें आगे चलकर पहला कांवड़िया घोषित किया होगा. दक्षिण भारत के शैव संप्रदाय में यह कथा प्रचलित है.
रावण संहिता में मिलता है रावण की शिवपूजा का जिक्र
उधर, रावण की शिव पूजा का विस्तृत जिक्र रावण संहिता में मिलता है. एक बार रावण महिष्मती क्षेत्र पर विजय पाने के लिए गया. रास्ते में नर्मदा नदी पड़ी. रावण ने इस सुंदर स्थल पर शिवलिंग स्थापित कर शिव आराधना करने की ठानी. वह नर्मदा नदी से जल लाकर शिव अभिषेक कर रहा था. इसी दौरान नर्मदा में सहस्त्रार्जुन अपनी पत्नियों के साथ जल क्रीड़ा कर रहा था. उसने अपने एक हाथ के बल से नर्मदा की धारा को रोक दिया.
रावण जिस स्थान से जल भर रहा था, अचानक वहां नदी का पानी वेग से बढ़ा और फिर वह स्थल जल विहीन हो गया. तब रावण पूजा बीच में छोड़कर इसकी वजह जानने पहुंचा और इस तरह उसका सहस्त्रार्जुन से युद्ध हुआ. खैर, रावण ने भी शिव जी को कलश में जल लाकर उनका अभिषेक किया था, इसलिए रावण की भी मान्यता कांवड़ यात्रा की किवदंती के तौर पर सामने आती है.
स्कंद पुराण में जलाभिषेक का जिक्र
स्कंद पुराण में शिव उपासना के लिए रावणोपाख्यान सर्ग में एक जिक्र आता है, जहां शिवगण नंदी और रावण की बातचीत होती है. इस स्थान पर नंदी कहते हैं कि जो प्राणी जलाशय से शिवालय तक पैदल ही गमन करता है, और फिर जल ले जाकर शिवालय को धोकर साफ करता है, वह बिना किसी विधान की पूजा के शिवलोक को प्राप्त कर लेता है.
यहां ध्यान देने वाली बात है कि स्कंद पुराण में कांवड़ यात्रा का जिक्र नहीं है, लेकिन ये जरूर लिखा है कि ‘जलाशय से जल लेकर शिवालय तक की यात्रा’. संभवतः आगे चलकर यही व्याख्या कांवड़ यात्रा के संदर्भ में ली गई होगी.
ग्रामीण परंपरा है कांवड़ यात्रा
हालांकि कांवड़ यात्रा विशुद्ध ग्रामीण परंपरा है और इसकी शुरुआत इधर के आधुनिक काल में ही कभी हुई हो, इसकी अधिक संभावना हो सकती है. इसके दो कारण है. कांवड़ यात्रा का समय सावन मास का है, जो चौमासे यानी चतुर्मास के बीच में आता है. प्राचीन मान्यता और नियम तो ये रहा है कि चौमासे में यात्राएं स्थगित रहती हैं. इसका जिक्र तो रामायण में भी मिलता है कि, चौमासे के दौरान देवी सीता की खोज अभियान को रोक दिया गया था. ऐसे में किसी दूर-दराज की यात्रा की परंपरा प्राचीन काल से मिलती हो, ऐसा तो कम ही हो सकता है.
दूसरी वजह ये है कि इस दौरान ग्रामीण किसान परिवार को खेतों की ओर से अधिक चिंता नहीं रहती है. वर्षा काल होने के कारण खेती बंद रहती है. पानी भी नहीं लगाना पड़ता है. ऐसे में यह समय गांवों में पूजा-पाठ और मनौतियों का होता है. ये मनौती कुछ भी हो सकती हैं. संतान प्राप्ति, बेटी का विवाह, रोग नाश, संपत्ति और कोई भी कामना पूर्ति के लिए मानी जाने वाली सौगंध. अक्सर मनौतियां या तो देवी माता से जुड़ी होती हैं, या शिव जी से. शिवजी से जुड़ी मनौतियां इसी तरह की सरल होती हैं, जिसमें उनका अभिषेक गंगाजल से कराने की मनौती सबसे आम है. श्रद्धालु अपनी श्रद्धा और सुविधा के अनुसार ये संख्या तय कर लेते हैं कि कितने कलश गंगाजल से वह शिवजी का जलाभिषेक करेंगे.
इस तरह की मनौतियों के पीछे पौराणिक कथाएं और मान्यताएं ही हैं. स्कंदपुराण के माहेश्वरखंड में इसका जिक्र आता है, जहां लोमश ऋषि बताते हैं कि शिवजी के मंदिर का मार्जन (सफाई) करने वाले उनके गणों में शामिल हो जाते हैं. उनको चंवर भेंट करने वाले अपने कुल को तार देते हैं. शिवजी को धूप अर्पित करने वाले पिता व नाना दोनों कुलों को मुक्ति मार्ग बताते हैं. दीपदान करने वाले तेजस्वी होते हैं, जो स्त्रियां चौक पूरती हैं वे शिवधाम प्राप्त करती हैं और जो तेज आवाज वाले सुंदर मधुर घंटे चढ़ाते हैं, वह कीर्तिमान स्थापित करते हैं. ये सारी मान्यताएं जो पुराणों से आई हैं, वही शिव पूजन को महत्वपूर्ण और सरल बनाती हैं.
संत कनप्पा की सरल शिव भक्ति
बात सरल शिवपूजा की आती है तो दक्षिण भारत के नयनार संतों में शामिल संत कनप्पा भी याद आते हैं. वह भील जाति के शिकारी थे, लेकिन जब शिव से उनकी लगन लगी तो वह अपने अनुसार उनकी पूजा में रम गए. कहते हैं कि वह जो खुद खाते वही शिव जी को अर्पित करते थे. एक दिन उन्होंने हिरण का मांस पकाया. जंगली पुष्प से माला बनाई और दोनों हाथ में मांस भूनकर पत्तों पर रखकर शिवजी की ओर चले. फिर सोचा कि पानी तो लेना ही भूल गया. इसलिए वह पास ही बह रही स्वर्णमुखी नदी पर पहुंचे, लेकिन पानी ले कैसे? तब संत कनप्पा ने नदी में डुबकी मारी और मुख में पानी भर लिया. फिर शिवलिंग को उसी मुंह में भरे पानी से नहलाया, उन्हें मांस चढ़ाया और वनफूलों की माला भी अर्पित कर दी. शिव उनके इस भोलेपन से इतना प्रसन्न हुए कि प्रकट हो गए और उन्हें दर्शन दिए. ऐसे होते हैं शिव के असली भोले भक्त.
इसलिए शिवजी की कांवड़ यात्रा का जिक्र पुराणों में मिले न मिले, किसी रावण ने कांवड़ पहले चढ़ाई हो या नहीं, शिवभक्तों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. उनके लिए तो बस इतनी सी बात है, वे शिव के हैं और शिव उनके हैं. हर-हर महादेव