सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह व न्यायमूर्ति एसवीएन भट्टी की युगलपीठ ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की विशेष अनुमति याचिका निरस्त कर दी। इसी के साथ 15 वर्ष से कानूनी लड़ाई लड़ रहे स्टेट बैंक ऑफ इंदौर के आठ दैनिक वेतनभोगियों को राहत मिल गई। उन सभी को सेवा में वापस लेने का आदेश पारित किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण (सीजीआईटी) के 24 फरवरी, 2014 के आदेश को बहाल रखा, जिसमें इन कर्मचारियों को पुनः सेवा में लेने और 50 प्रतिशत बकाया वेतन (बैक वेजेस) प्रदान करने का निर्देश दिया गया था।
साथ ही, मप्र हाई कोर्ट के 14 नवंबर, 2019 के निर्णय को भी मान्यता दी गई, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि नियोक्ता को अपने गलत कार्यों का लाभ नहीं मिल सकता। इस आदेश ने न केवल श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा की, बल्कि यह भी स्थापित किया कि औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 और विलय से संबंधित अधिसूचनाओं का पालन करना अनिवार्य है।
विलय और औद्योगिक विवाद अधिनियम का उल्लंघन
दैनिक वेतन भोगियों का पक्ष रखने वाले जबलपुर निवासी श्रम मामलों के अधिवक्ता संजय वर्मा व हरमीत सिंह रुपराह ने अवगत कराया कि यह मामला वर्ष 2010 में शुरू हुआ था। सरकार ने 28 जुलाई, 2010 को एक अधिसूचना जारी कर स्टेट बैंक ऑफ इंदौर का स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में विलय कर दिया। इस विलय के लिए जारी अधिसूचना की धारा सात और आठ के तहत सभी कर्मचारियों को सेवा स्थानांतरण का विकल्प देने का प्रविधान था। यदि कोई कर्मचारी स्थानांतरण नहीं चाहता था, तो उसे बाहर निकलने की प्रक्रिया (एग्जिट आप्शन) का पालन करना अनिवार्य था।
यह प्रविधान औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 25 एफ, 25 जी, और 25 एच के साथ-साथ विलय से संबंधित कानूनी दिशानिर्देशों के अनुरूप था, जो कर्मचारियों की सेवा समाप्ति के लिए उचित प्रक्रिया और मुआवजे का प्रविधान करता है। लेकिन स्टेट बैंक ऑफ इंदौर ने इन दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों के साथ इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया।
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने बिना किसी पूर्व सूचना, मुआवजे, या वैधानिक प्रक्रिया के इन कर्मचारियों की सेवाएं अगस्त 2010 में समाप्त कर दीं। यह न केवल विलय अधिसूचना का उल्लंघन था, बल्कि औद्योगिक विवाद अधिनियम के प्रावधानों का भी स्पष्ट उल्लंघन था, जो कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा करता है।
कानूनी संघर्ष की शुरुआत
इस अन्याय के विरुद्ध आठ कर्मचारियों-रवि यादव, उमेश कुमार सैनी, मुकेश कुमार सुमन, राजकुमार सेन, मुकेश बुरमन, राम नारायण पाठक, रविन्द्र यादव, सुनील कुमार नाहर ने एकजुट होकर कानूनी लड़ाई शुरू की। उन्होंने वर्ष 2010 में हाई कोर्ट में रिट याचिका दायर की। हाई कोर्ट ने 27 सितंबर 2012 को याचिका का निपटारा करते हुए कर्मचारियों को निर्देश दिया कि वे औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत केंद्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण (सीजीआईटी), जबलपुर में अपनी शिकायत दायर करें।
लिहाजा, कर्मचारियों ने सीजीआईटी में याचिकाएं दायर कीं। 24 फरवरी, 2014 को सीजीआईटी ने उनके पक्ष में आदेश सुनाया, जिसमें कहा गया कि उनकी सेवा समाप्ति अवैध और गैरकानूनी थी। न्यायाधिकरण ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को इन कर्मचारियों को पुनः सेवा में लेने और 50 प्रतिशत बकाया वेतन देने का आदेश दिया।
स्टेट बैंक का हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में विरोध
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने सीजीआईटी के इस निर्णय को चुनौती देते हुए हाई कोर्ट की एकलपीठ में याचिका दायर की। 23 जुलाई, 2018 को एकलपीठ ने सीजीआईटी के निर्णय को संशोधित करते हुए कर्मचारियों को पुनःस्थापन के बजाय प्रत्येक को चार लाख मुआवजे का आदेश दिया। यह निर्णय कर्मचारियों के लिए स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि वे अपनी नौकरी और सम्मान वापस चाहते थे।
इसके बाद, कर्मचारियों ने हाई कोर्ट की युगलपीठ में रिट अपील दायर की। 14 नवंबर, 2019 को युगलपीठ ने एकलपीठ के आदेश को पलटते हुए सीजीआईटी के मूल निर्णय को बहाल कर दिया। युगलपीठ ने स्पष्ट किया कि कर्मचारियों की सेवा समाप्ति न केवल विलय अधिसूचना के प्रावधानों के विरुद्ध थी, बल्कि औद्योगिक विवाद अधिनियम का भी उल्लंघन था।
युगलपीठ ने यह भी कहा कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जैसे नियोक्ता को अपने गलत कार्यों का लाभ उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने इस निर्णय को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की।
15 वर्षों की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की याचिका निरस्त कर दी और सीजीआईटी व हाई कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका ऐसे नियोक्ताओं को संरक्षण नहीं दे सकती, जो अपने गलत कृत्यों का लाभ लेना चाहते हैं।