नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उत्तर प्रदेश सरकार से पूछा कि वृंदावन स्थित बांके बिहारी मंदिर के प्रबंधन के लिए एक ट्रस्ट बनाने संबंधी अध्यादेश को लेकर इतनी जल्दी क्यों है. साथ ही, कोर्ट ने इस धार्मिक स्थल का प्रशासन एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली समिति को सौंपने का भी संकेत दिया.
राज्य सरकार ने 26 मई को उत्तर प्रदेश श्री बांके बिहारी जी मंदिर न्यास अध्यादेश, 2025 जारी किया, जिसके तहत मंदिर के मामलों के प्रबंधन के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की गई.
यह मामला न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाला बागची की पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए आया. पीठ ने राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के.एम. नटराज से पूछा, “अध्यादेश लाने की इतनी जल्दी क्यों थी?”
पीठ ने उस “गुप्त तरीके” की भी आलोचना की, जिसमें राज्य ने एक सिविल विवाद में आवेदन दायर करके, 15 मई के आदेश के माध्यम से, कॉरिडोर विकास परियोजना के लिए मंदिर के धन के उपयोग के लिए सुप्रीम कोर्ट से अनुमति प्राप्त की.
इस वर्ष मई में, सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की मथुरा में श्री बांके बिहारी मंदिर गलियारे को विकसित करने की योजना का मार्ग प्रशस्त किया, जिससे श्रद्धालुओं को लाभ मिल सके. कोर्ट ने कहा कि ऐतिहासिक मंदिर पुरानी संरचनाएं हैं और उन्हें उचित रखरखाव तथा अन्य सहायता की आवश्यकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को श्री बांके बिहारी मंदिर के धन का उपयोग केवल मंदिर के आसपास 5 एकड़ भूमि खरीदने तथा उस पर एक होल्डिंग क्षेत्र बनाने के लिए करने की अनुमति दी थी.
सप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि इसके लिए खरीदी जाने वाली प्रस्तावित भूमि “देवता/(मंदिर) ट्रस्ट के नाम पर होगी.” इसके अलावा, ब्रज क्षेत्र में मंदिरों के प्रशासन और सुरक्षा से संबंधित एक मामले में, कोर्ट ने राज्य द्वारा दायर एक अंतरिम आवेदन को भी अनुमति दे दी थी.
मई में अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने कहा था कि उसे बताया गया है कि श्री बांके बिहारी मंदिर सहित इस क्षेत्र के अन्य मंदिरों को भीड़ प्रबंधन के गंभीर प्रशासनिक मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है और इसका प्रशासन एक सिविल न्यायाधीश द्वारा किया जा रहा है.
आज सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं के वकील ने सुप्रीम कोर्ट के मई के आदेश और राज्य द्वारा मंदिर के मामलों के प्रबंधन के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना के लिए लाए गए अध्यादेश का कड़ा विरोध किया.
सुप्रीम कोर्ट ने आश्चर्य व्यक्त किया कि जब मंदिर का प्रबंधन करने वाले लोग सुनवाई में पक्षकार नहीं हैं, तो फिर एक अंतरिम आवेदन पर आदेश कैसे पारित किया जा सकता है.
पीठ ने राज्य सरकार से पूछा, “जब मंदिर का प्रबंधन करने वाले लोग पक्षकार ही नहीं हैं, तो वह शीर्ष अदालत के निर्देश को कैसे उचित ठहराती है?” पीठ ने मौखिक रूप से 15 मई के फैसले में दिए गए निर्देशों को वापस लेने का प्रस्ताव रखा, जिसमें राज्य को मंदिर के धन का उपयोग करने की अनुमति दी गई थी.
नटराज ने तर्क दिया कि यह एक सार्वजनिक मंदिर है, और इस बात पर जोर दिया कि जो लोग मई के आदेश और राज्य के अध्यादेश के खिलाफ अदालत में आए हैं, उनका कोई अधिकार नहीं है.
पीठ को बताया गया कि अदालत के समक्ष पक्षकार प्रबंधन समिति नहीं थे। नटराज ने कहा, “कई लोग दावा करते हैं, लेकिन कोई मान्यता प्राप्त प्रबंधन समिति नहीं है. ये सभी अनधिकृत लोग हैं.” नटराज के तर्क का खंडन करते हुए, याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने तर्क दिया, “एक प्रबंधन समिति है.
मंदिर की ओर से किसी की बात सुनी जानी चाहिए थी
पीठ ने कहा कि जिस मामले के कारण 15 मई को शीर्ष अदालत ने आदेश दिया, वह बांके बिहारी मंदिर के बारे में नहीं था.
पीठ ने पूछा, “क्या अदालत द्वारा नियुक्त कोई रिसीवर था?” पीठ ने स्पष्ट किया कि यह नो मैन्स लैंड का मामला नहीं था और मंदिर की ओर से किसी की बात सुनी जानी चाहिए थी। पीठ ने कहा, “अगर सिविल जज निगरानी कर रहे थे, तो सिविल जज को नोटिस जारी किया जा सकता था… इस अदालत द्वारा कोई सार्वजनिक नोटिस जारी किया जाना चाहिए था…”