मुसलमानों में प्रचलित तलाक-ए-हसन, तलाक-ए-अहसन, तलाक-ए-किनाया, तलाक-ए-बाईन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग और बाल अधिकार आयोग (NCPCR) से राय मांगी है. इसके साथ ही इन व्यवस्थाओं को लेकर धार्मिक सामग्री को भी कोर्ट में रखने को कहा है.सुप्रीम कोर्ट द्वारा तीन तलाक को समाप्त करने के बाद से मुसलमानों में तलाक की यह आम प्रथा अभी भी जारी है.
बेनजीर हिना नाम की एक पीड़ित महिला द्वारा दायर एक याचिका पर, सुप्रीम कोर्ट ने आज सोमवार (11 अगस्त) को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग और बाल अधिकार आयोग से प्रभावित महिलाओं और विवाहेतर संबंधों से पैदा हुए बच्चों पर तलाक-ए-हसन के प्रभाव की जांच करने के लिए राय मांगी.
19 नवंबर को अगली सुनवाई
मुसलमानों में प्रचलित तलाक-ए-हसन एक ऐसी प्रथा है जिसमें तीन महीने तक हर महीने एक बार तलाक कहा जाता है और इस तरह तीन तलाक की प्रक्रिया पूरी हो जाती है. इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक या तलाक-ए-बिदअत या एक बार में तीन बार तलाक कहने को असंवैधानिक करार दिया था. सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई नवंबर के तीसरे सप्ताह 19 तारीख को होगी.
3 साल से लंबित हैं याचिकाएं
इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिकाएं 3 साल से लंबित हैं. ये याचिकाएं बेनजीर हिना, नाजरीन निशा समेत कई तमाम महिलाओं की हैं जो एकतरफा तलाक से व्यक्तिगत रूप से प्रभावित हैं. उनका कहना है कि मुस्लिम महिलाओं को भी दूसरे धर्मों की महिलाओं जैसे अधिकार मिलने चाहिए. याचिकाओं में कहा गया है कि धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर मुस्लिम महिलाओं को कानून की नजर में समानता (अनुच्छेद 14) और सम्मान से जीवन जीने (अनुच्छेद 21) जैसे मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं रखा जा सकता.
याचिकाकर्ताओं ने मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट तलाक-ए-हसन और अदालती तरीके से न होने वाले दूसरे सभी किस्म के तलाक को असंवैधानिक करार दे. शरियत एप्लिकेशन एक्ट, 1937 की धारा 2 रद्द करने का आदेश दिया जाए. साथ ही डिसोल्यूशन ऑफमुस्लिम मैरिज एक्ट, 1939 भी पूरी तरह निरस्त हो.