2 सितंबर को मनाया जाएगा बाबा रामदेव की जयंती उत्सव : रामदेवरा में बसे हैं श्रद्धा, समरसता और सद्भावना के प्रतिक ‘रामसा पीर’

जैसलमेर: बाबा रामदेव को हिंदू समाज ‘लोक देवता’ मानकर पूजता है, वहीं मुस्लिम समुदाय उन्हें ‘रामसापीर’ कहकर सजदा करता है. यानी बाबा रामदेव ऐसे संत हैं, जिन्हें हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदाय अपने-अपने तरीके से श्रद्धा और भक्ति के साथ मानते हैं.बाबा रामदेव को मानवता, समरसता और आपसी सौहार्द का प्रतीक माना जाता है.कहा जाता है कि उन्होंने जात-पात, भेदभाव और धार्मिक दीवारों को तोड़कर समानता और मानव सेवा का संदेश दिया.

बाबा रामदेव का जन्म लगभग 1409 ईस्वी में राजस्थान के रुणीचा (रामदेवरा) में तंवर राजवंश के राजा अजमल के घर हुआ था. जन्म से ही उनके भीतर अद्भुत और अलौकिक गुण दिखाई देने लगे. बचपन से ही वे करुणा, मानवता और धर्मनिष्ठा की मिसाल बन गए.

उनकी ख्याति इतनी दूर-दूर तक फैली कि अरब से पांच मुस्लिम फकीर उनकी परीक्षा लेने रुणीचा आए, लेकिन बाबा रामदेव की अलौकिक शक्तियों से प्रभावित होकर वे उनके भक्त बन गए.आज इन्हीं फकीरों को “पांच पीर” के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है कि बाबा रामदेव ने 1459 ईस्वी में जीवित समाधि ली थी.

जिस स्थान पर बाबा रामदेव ने समाधि ली, वहां बीकानेर के राजा गंगा सिंह ने भव्य मंदिर का निर्माण करवाया इस मंदिर परिसर में बाबा की समाधि के साथ-साथ उनके परिवारजनों की भी समाधियां स्थित हैं. वहीं उनकी मुंहबोली बहन डालीबाई की समाधि,उनका कंगन और प्रसिद्ध रामझरोखा भी इसी परिसर में स्थित है.

बाबा रामदेव के सफेद घोड़े ‘लीलण’ का भी विशेष महत्व है. लोककथाओं के अनुसार, पांच फकीर ही यह अलौकिक सफेद घोड़ा अरब से लेकर आए थे और बाबा को भेंट किया था. कहा जाता है कि जब बाबा ने समाधि ली, तब लीलण घोड़ा भी वहीं गिर पड़ा और उसका भी वहीं अंत हो गया.

आज भी बाबा रामदेव के साथ उनके प्रिय घोड़े लीलण की भी पूजा की जाती है. बाबा रामदेव जयंती पर देशभर से लाखों श्रद्धालु रुणीचा (रामदेवरा) पहुंचते हैं और अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं.यह पर्व सामाजिक समरसता, भाईचारे और श्रद्धा का अद्वितीय उदाहरण है.

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