उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने जाति-आधारित राजनीतिक रैलियों और जातिगत पहचान के सार्वजनिक प्रदर्शनों पर रोक लगाने का ऐलान कर दिया, जिसके बाद सियासत गरम हो गई. समाजवादी पार्टी के मुखिया और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पलटवार किया है और उन्होंने पूछा है कि हजारों साल से मन में बसे जातिगत भेदभाव क्या होगा, इसे कैसे दूर किया जाएगा?
उन्होंने आगे पूछा, ‘किसी का घर धुलवाने की जातिगत भेदभाव की सोच का अंत करने के लिए क्या उपाय किया जाएगा? किसी पर झूठे और अपमानजनक आरोप लगाकर बदनाम करने के जातिगत भेदभाव से भरी साजिशों को समाप्त करने के लिए क्या किया जाएगा?’ दरअसल, सरकार ने जाति आधारित किसी भी कार्य को “सार्वजनिक व्यवस्था” और “राष्ट्रीय एकता” के लिए खतरा बताया है. इस संबंध में देर रात कार्यवाहक मुख्य सचिव दीपक कुमार ने आदेश जारी किया और राज्य भर के जिलाधिकारियों, वरिष्ठ नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिए गए हैं.
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने दिए थे निर्देश
यह निर्देश इलाहाबाद हाई कोर्ट के 16 सितंबर के एक फैसले पर आधारित हैं. उस फैसले में कोर्ट ने राज्य सरकार से पुलिस दस्तावेजों में जाति संबंधी विवरण दर्ज करना बंद करने को कहा था, सिवाय उन मामलों के जहां अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत कानूनी रूप से आवश्यक हो. कोर्ट ने राज्य के पुलिस महानिदेशक की ओर से दिए गए तर्क की आलोचना करते हुए कहा था कि यह भारतीय समाज की जटिल वास्तविकताओं और पेशेवर पुलिसिंग की मांगों से अलग है.
यूपी सरकार का ये आदेश राजनीतिक पार्टियों को रास नहीं आ रहा है. इसका असर समाजवादी पार्टी, बसपा, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी, अपना दल जैसी पार्टियों पर पड़ सकता है क्योंकि ये पार्टिया तमाम रूपों में जाति-आधारित जनसभाएं करती आई हैं.