जगदलपुर में 8 चक्कों वाले 2 मंजिला विजय रथ की परिक्रमा करवाकर बस्तर दशहरा मनाया गया। ये परिक्रमा ही बस्तर दशहरा को दुनिया भर में खास बनाती है। इसके बाद ग्रामीणों ने दशहरे की रात रथ की चोरी कर भीतर रैनी की रस्म निभाई। यह परंपरा करीब 617 सालों से चली आ रही है।
2 अक्टूबर की रात सिरहासार भवन के सामने से रथ की परिक्रमा शुरू की गई। जो गोलबाजार होते हुए मां दंतेश्वरी मंदिर लेकर आए। परंपरा अनुसार इस विशाल रथ को किलेपाल इलाके के सैकड़ों ग्रामीणों ने खींचा।
परिक्रमा पूरी होने के बाद देवी का छत्र नीचे उतारने के बाद ग्रामीणों ने रथ को चुरा लिया। जिसे शहर के पास स्थित कुम्हड़ाकोट के जंगल लेकर गए। जहां रथ को छिपा दिया। इसी रस्म को भीतर रैनी कहा जाता है।
वहीं आज बस्तर राज परिवार के सदस्य रथ लेने जाएंगे। ग्रामीणों के साथ नवाखाई खाएंगे। जिसके बाद ग्रामीण उन्हें रथ लौटाएंगे। फिर रथ को खींचकर राजमहल लाया जाएगा। इस रस्म को बाहर रैनी कहा जाता है। वहीं, इस दौरान एक घटना भी घटी, एक कार विजय रथ के चक्के में फस गई थी जिसे बाद में निकाला गया।
माड़िया समुदाय के लोग करते हैं रथ की चोरी
दरअसल, सालों से चली आ रही और परंपरा के अनुसार बस्तर के किलेपाल, बास्तानार समेत 55 गांव के माड़िया समुदाय के सदस्य ही रथ की चोरी करते हैं।
इस रथ को कुम्हड़ाकोट के जंगल में छिपाकर रखा जाता है। राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव के मुताबिक, ग्रामीण सजा के तौर पर राजा को पूरे शान-शौकत, हाथी, घोड़ों के साथ कुम्हड़ाकोट बुलाते हैं।
नवाखाई खाने के बाद ये ग्रामीण पूरे सम्मान के साथ रथ को खींच कर फिर से राज महल लाकर खड़ा करते हैं। रथ के आगे राजा चलते हैं और पीछे ग्रामीण रथ को खींचते हैं। यह परंपरा 617 सालों से चली आ रही है।
भीतर और बाहर रैनी के दिन चलता है विजय रथ
दरअसल, नवरात्रि की तृतीय से सप्तमी तक यानी कुल 5 दिनों तक चार चक्का वाले फूल रथ की परिक्रमा करवाई जाती है। वहीं विजयादशमी को 8 चक्कों वाले विजय रथ की परिक्रमा करवाने की परंपरा है। इस विशाल रथ से ही भीतर और बाहर रैनी की परंपरा अदा की जाती है।
चक्का के नीचे फंसी कार
विजय रथ की परिक्रमा के दौरान मां दंतेश्वरी मंदिर के सामने एक कार विजय रथ के चक्के में फस गई थी। रथ के साथ कार काफी दूर तक घसीटते हुए गई। हालांकि बाद में किसी तरह से कर को निकाला गया। गनीमत रही की इस दौरान कार में कोई बैठा नहीं था।
बस्तर में वाद्ययंत्रों का विशेष महत्व
बस्तर में अलग-अलग परंपरा और रीति-रिवाजों में अलग-अलग तरह के वाद्ययंत्रों का विशेष महत्व है। आदिवासी कल्चर में शादी से लेकर सांस्कृतिक कार्यक्रम और पारंपरिक नृत्य तक कई तरह के बाजा बजाने का विधान है। इनमें सबसे खास मुंडा बाजा है।
जिसे बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी की आराधना करने, बस्तर दशहरा में उनकी डोली और छत्र के सामने बजाने का विधान करीब 617 सालों से चला आ रहा है। कहा जाता है कि जब तक यह बाजा नहीं बजता है तब तक देवी की आराधना अधूरी मानी जाती है।