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617 साल पुरानी परंपरा: मां-दंतेश्वरी आराधना में बकरे की चमड़ी और शिवना लकड़ी का मुंडा बाजा अनिवार्य

बस्तर में अलग-अलग परंपरा और रीति-रिवाजों में अलग-अलग तरह के वाद्ययंत्रों का विशेष महत्व है। आदिवासी कल्चर में शादी से लेकर सांस्कृतिक कार्यक्रम और पारंपरिक नृत्य तक कई तरह के बाजा बजाने का विधान है। इनमें सबसे खास मुंडा बाजा है।

जिसे बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी की आराधना करने, बस्तर दशहरा में उनकी डोली और छत्र के सामने बजाने का विधान करीब 617 सालों से चला आ रहा है। कहा जाता है कि जब तक यह बाजा नहीं बजता है तब तक देवी की आराधना अधूरी मानी जाती है।

ढाई फीट के मुंडा बाजा का इतिहास

बस्तर के पोटानारा गांव के रहने वाले मुंडा जनजाति के लोग ही इस बाजा को बनाते हैं, बजाते हैं। बकरे के चमड़े और शिवना लकड़ी से बने करीब ढाई फीट के इस मुंडा बाजा के इतिहास को आज हम आपको बताएंगे। कैसे सिर्फ मुंडा जनजाति के लोग ही इसे बनाते हैं? कैसे ये परंपरा में आया?

अच्छी आवाज निकालने के लिए ये बाजा बनाया

दरसअल, बस्तर जिले के पोटानारा गांव में मुंडा जनजाति के लोग रहते हैं। इस समुदाय के अध्यक्ष परमेश्वर बघेल का कहना है कि, हमारे पूर्वज पहले मिट्टी का घड़ा या बड़े आकार का दीपक और उसपर मेंढक की चमड़ी से छोटा-छोटा बाजा बनाते थे। इससे निकलने वाली धुन मधुर होती थी।

वहीं और अच्छी आवाज निकालने के लिए फिर धीरे-धीरे बकरे की चमड़ी से बाजा बनाने लगे। उन्होंने कहा कि, हमें हमारे पूर्वजों ने बताया था कि सालों पहले बस्तर में परिक्रमा के दौरान रथ कहीं फंस गया था। तत्कालीन राजा ने हाथी-घोड़े से रथ खिंचवाया, जिसके बाद भी रथ नहीं निकला था।

मुंडा जनजाति के लोग बनाते है बाजा

उस समय बस्तर के तत्कालीन राजा ने हमारे पूर्वजों को बुलाया। पूर्वजों ने देवी की आराधना की, भजन-कीर्तन किया, बाजा बजाया। देवी की आराधना के बाद कुछ ही देर में जब रथ को दोबारा खींचा गया तो रथ निकल गया। जिसके बाद राजा भी खुश हुए थे।

तब से राजा ने निर्णय लिया था कि मां दंतेश्वरी की पूजा, डोली या फिर छत्र समेत रथ की परिक्रमा हो तो इस बाजा को ही बजाया जाएगा। तब से मुंडा जनजाति के लोग ही ये बाजा बनाते हैं, खुद बजाते हैं। उन्होंने कहा कि हम लोग देवी दंतेश्वरी के साथ ही ऋषि मावली माता की भी पूजा करते हैं।

अब जानिए कैसे बनता है बाजा

मुंडा जनजाति के सदस्य मनोज बघेल और बद्रीनाथ नाग ने बताया कि बस्तर दशहरा में निशा जात्रा की रस्म अदा की जाती है। इस रस्म में 12 बकरों की बलि दी जाती है। जिसके बाद इन बकरों के चमड़े से मुंडा जनजाति के लोग बाजा बनाते हैं। ये परंपरा भी पूर्वजों के समय से चल रही है। करीब 20 से 30 लोगों का समूह एक साथ बाजा बजाते हैं।

2 से ढाई फीट का होता है बाजा

मुंडा बाजा करीब 2 से ढाई फीट का होता है। इसका एक हिस्सा गोल और थोड़ा मोटा होता है, जबकि दूसरा हिस्सा पतला होता है। इस बाजा के ढांचे में अलग-अलग तरह की कलाकृतियां उकेरी जाती है। जिसमें देवी-देवताओं की कलाकृति के साथ ही बस्तर दशहरा, रथ परिक्रमा की भी कलाकृति होती है।

एक बाजा बनाने में 10 हजार तक का खर्च

बाजा में एक रस्सी बांधी जाती है। जिसे बजाने वाला व्यक्ति रस्सी को बाएं कंधे के ऊपर और बाजा को बाएं हाथ के नीचे रखकर बजाता है। साथ ही देवी की आराधना करने भजन-कीर्तन करता है। वर्तमान में एक बाजा को बनाने में करीब 10 हजार रुपए से ज्यादा का खर्च आता है। इस जनजाति के लोगों का कहना है कि शिवना लड़की भी मुश्किल से मिलती है।

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