रीवा की जनता से छलावा: सत्ता का लालच और जनता की आह, अटल पार्क बनता जा रहा ‘टैक्स-जंगल’

रीवा : रीवा के हृदय में स्थित अटल पार्क, जो कभी सुकून, स्वास्थ्य और सामाजिक एकता का केंद्र था, अब नगर निगम की नीतियों का शिकार बन रहा है. यह सिर्फ एक पार्क को ठेके पर देने का मामला नहीं, बल्कि लोकतंत्र के उसूलों पर एक गहरा वार है, जहां जनता की सुविधा को सत्ता के लालच और राजस्व की भूख के सामने बलि चढ़ा दिया गया है.जिस पार्क में बिना किसी शुल्क के लोग सुबह-शाम टहलते थे, योग करते थे और आपस में मिलते थे, उसे अब ऑनलाइन टेंडर के माध्यम से नीलाम किया जा रहा है. अधिवक्ता बी.के. माला के अनुसार, यह पार्क, जो 24 घंटे जनता के लिए खुला था, अब केवल सुबह 6 से 8 बजे तक ही निःशुल्क रहेगा.

इसके बाद, हर नागरिक को अपनी ही ज़मीन पर कदम रखने के लिए पैसे चुकाने होंगे. यह फैसला न केवल अनैतिक है, बल्कि उन लोगों के साथ भी अन्याय है जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं.क्या एक गरीब व्यक्ति को स्वस्थ रहने का अधिकार नहीं है? क्या शहर की हरियाली और ताज़ी हवा भी अब अमीरों की जागीर बन जाएगी.यह मुद्दा केवल अटल पार्क तक सीमित नहीं है. यह एक बड़ी समस्या का हिस्सा है, जहां रीवा में एक-एक करके सभी सार्वजनिक स्थानों को टैक्स के जाल में फँसाया जा रहा है.इको पार्क से लेकर रानी तालाब और संजय गांधी पार्क तक, हर जगह जनता पर शुल्क का बोझ डाला जा रहा है.

अधिवक्ता माला का कहना है कि अब रीवा में “जनता को हर जगह टैक्स देना पड़ रहा है.” यह स्थिति न केवल नागरिकों की जेब पर भारी पड़ रही है, बल्कि यह भी साबित करती है कि प्रशासन जनता के कल्याण से ज्यादा राजस्व संग्रह पर ध्यान केंद्रित कर रहा है.क्या यही है लोकतंत्र, जहाँ नागरिकों को उनके ही शहर में हर कदम पर अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है.
अधिवक्ता माला ने इस टेंडर के खिलाफ अपनी आपत्ति दर्ज कराई है और इसे नगर निगम के अधीन रखने की मांग की है.उनकी यह लड़ाई केवल अटल पार्क के लिए नहीं, बल्कि रीवा के हर नागरिक के लिए है. इस फैसले के पीछे की मंशा पर भी सवाल उठते हैं.क्या यह केवल राजस्व बढ़ाना है, या यह सार्वजनिक स्थानों को धीरे-धीरे निजीकरण की ओर धकेलने की एक सोची-समझी साजिश है? इस बात की भी आशंका जताई गई है कि भविष्य में इस पार्क को कहीं वैवाहिक या कार्यक्रम स्थल का रूप न दे दिया जाए, जिससे इसका मूल चरित्र ही खत्म हो जाएगा.

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