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बस हैरेसमेंट के आधार पर किसी को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी नहीं ठहरा सकते: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध के लिए किसी को दोषी ठहराने के लिए केवल उत्पीड़न पर्याप्त नहीं है, बल्कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उकसाने के स्पष्ट सबूत होने चाहिए. न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और पी बी वराले की पीठ ने गुजरात हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देने वाली अपील पर फैसला सुनाते हुए यह टिप्पणी की, जिसमें एक महिला को कथित रूप से परेशान करने और उसे आत्महत्या के लिए मजबूर करने के लिए उसके पति और उसके ससुराल वालों को आरोपमुक्त करने से इनकार कर दिया गया था.

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ऐसे में 34 वर्षीय AI इंजीनियर अतुल सुभाष सुसाइड केस के मद्देनजर इस फैसले में की गई टिप्पणियां महत्वपूर्ण हो जाती हैं. अतुल सुभाष ने बेंगलुरु में सुसाइड कर लिया. इससे पहले उन्होंने 24 पन्नों का सुसाइड नोट और 90 मिनट का वीडियो शेयर किया था. इनमें उन्होंने अपनी अलग रह रही पत्नी और उसके परिवार पर उत्पीड़न जैसे गंभीर आरोप लगाए हैं. पुलिस ने अतुल के भाई की शिकायत के आधार पर अतुल की पत्नी निकिता सिंघानिया, उनकी मां निशा, पिता अनुराग और चाचा सुशील के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज किया गया है.शीर्ष अदालत की यह टिप्पणी अतुल सुभाष केस में आरोपी निकिता और उसके परिवार के सदस्यों के लिए मददगार साबित हो सकती है.

क्या है IPC की धारा 498-ए और धारा 306

पीटीआई के मुताबिक गुजरात हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि 2021 में कथित अपराधों के लिए मामला दर्ज किया गया था, जिसमें धारा 498-ए (विवाहित महिला के साथ क्रूरता करना) और आईपीसी की धारा 306 शामिल है, जो आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध से संबंधित है और इसमें अधिकतम 10 साल की जेल और जुर्माने का प्रावधान है.

‘सुसाइड के लिए उकसाने का इरादा स्पष्ट होना चाहिए’

हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई. सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 10 दिसंबर के अपने फैसले में कहा, “आईपीसी की धारा 306 के तहत दोषसिद्धि के लिए यह एक सुस्थापित कानूनी सिद्धांत है कि सुसाइड के लिए उकसाने का इरादा स्पष्ट होना चाहिए. केवल उत्पीड़न किसी को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है.”

कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष को अभियुक्त द्वारा कोई सक्रिय या प्रत्यक्ष सबूत पेश करने चाहिए जिसके कारण मृतक ने अपनी जान ले ली. पीठ ने कहा कि केवल अनुमान नहीं लगाया जा सकता है. इसके लिए कुछ सबूत होना चाहिए. इसके बिना, कानून के तहत उकसावे को स्थापित करने की मूलभूत आवश्यकता पूरी नहीं होती है, जो आत्महत्या के लिए उकसाने के स्पष्ट इरादे को रेखांकित करता है.”

सुप्रीम कोर्ट ने धारा-498-ए के तहत आऱोप रखा बरकरार

पीठ ने मामले में तीनों लोगों को धारा 306 के तहत आरोप से मुक्त कर दिया. हालांकि कोर्ट ने आईपीसी की धारा 498-ए के तहत अपीलकर्ताओं के खिलाफ आरोप को बरकरार रखा.

कोर्ट ने नोट किया कि महिला के पिता ने उसके पति और दो ससुराल वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा 306 और 498-ए सहित कथित अपराधों के लिए एक प्राथमिकी दर्ज की थी. पीठ ने कहा कि महिला की शादी 2009 में हुई थी और शादी के पहले पांच साल तक दंपति को कोई बच्चा नहीं हुआ, जिसके कारण उसे कथित तौर पर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. इसने आगे कहा कि अप्रैल, 2021 में महिला के पिता को सूचना मिली कि उसने आत्महत्या कर ली है.

हाईकोर्ट ने उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 306 और 498-ए के तहत आरोप तय करने के सत्र न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 306 उन लोगों को दंडित करती है जो किसी अन्य व्यक्ति को आत्महत्या के लिए उकसाते हैं.
किसी व्यक्ति पर इस धारा के तहत आरोप लगाने के लिए अभियोजन पक्ष को यह स्थापित करना होगा कि आरोपी ने मृतक को आत्महत्या करने के लिए उकसाया था. पीठ ने कहा कि आईपीसी की धारा 306 के तहत दोषी साबित करने के लिए मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए स्पष्ट मंशा स्थापित करना आवश्यक है.

तथ्यों की सावधानीपूर्वक हो जांच: SC

इसमें कहा गया है, “इस प्रकार, पत्नी की मौत के मामले में कोर्ट को तथ्यों और परिस्थितियों की सावधानीपूर्वक जांच करनी चाहिए, साथ ही प्रस्तुत सबूतों का भी आकलन करना चाहिए. यह निर्धारित करना आवश्यक है कि क्या पीड़ित पर की गई क्रूरता या उत्पीड़न के कारण उनके पास अपनी जान लेने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था.”

शीर्ष अदालत ने कहा कि आत्महत्या के लिए कथित रूप से उकसाने के मामलों में, आत्महत्या के लिए उकसाने वाले प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कृत्यों का ठोस सबूत होना चाहिए. केवल उत्पीड़न के आरोप दोष सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. दोषसिद्धि के लिए, अभियुक्त द्वारा सकारात्मक कार्य का सबूत होना चाहिए, जो घटना के समय से निकटता से जुड़ा हो, जिसने पीड़िता को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया या प्रेरित किया.”

इस आधार पर अपीलकर्ता को मिली राहत

शीर्ष अदालत ने कहा कि इस मामले में प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि न तो अपीलकर्ताओं के पास अपेक्षित मानसिक कारण था और न ही उन्होंने आत्महत्या के लिए उकसाने या सहायता करने के लिए कोई सकारात्मक या प्रत्यक्ष कार्य या चूक की थी.

पीठ ने कहा कि महिला ने विवाह के 12 वर्ष बाद आत्महत्या कर ली. अपीलकर्ताओं का यह तर्क कि मृतक ने विवाह के बारह वर्षों में अपीलकर्ताओं के विरुद्ध क्रूरता या उत्पीड़न की एक भी शिकायत नहीं की थी, कायम नहीं रह सकता. केवल इसलिए कि उसने बारह वर्षों तक कोई शिकायत दर्ज नहीं की, यह गारंटी नहीं है कि क्रूरता या उत्पीड़न का कोई मामला नहीं था.”

पीठ ने अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए अपीलकर्ताओं को आईपीसी की धारा 306 के तहत आरोपमुक्त कर दिया. हालांकि, इसने धारा 498ए के तहत आरोप को बरकरार रखा और कहा कि इस प्रावधान के तहत उनके खिलाफ मुकदमा चलना चाहिए.

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