प्रदेश में शिक्षा कर्मियों का अपना गौरवशाली इतिहास है. विशेष तौर पर बात करें हड़ताल की तो शिक्षाकर्मी वह वर्ग है जो जनसैलाब सड़क पर उतारने की ताकत रखता है. बीते 5 वर्षों में प्रमुख रूप से सहायक शिक्षक फेडरेशन ही इस जलजले को सड़क पर उतरता हुआ देखा गया और हर बार उसके आंदोलन में जबरदस्त भीड़ रही. पहली बार ऐसा हुआ कि सहायक शिक्षक फेडरेशन ने अन्य शिक्षक संगठनों के साथ हड़ताल करना कबूल किया. ऐसे में यह माना जा रहा था कि मनीष मिश्रा, संजय शर्मा , वीरेंद्र दुबे और विकास राजपूत के नेतृत्व से सजी मोर्चा की टीम हर हाल में इस बार आंदोलन में सफल रहेगी.
लेकिन अलग-अलग जिलों से जो तस्वीर निकाल कर सामने आई हैं, वो हैरान कर देने वाली हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि कहीं पर भी वो भीड़ नजर आ ही नहीं रही थी जिसके लिए शिक्षक जाने जाते हैं. जिन जिलों में बड़े-बड़े नेता स्वयं मोर्चा संभाले हुए थे वहां भीड़ बहुत कम थी. अधिकांश स्कूल भी पूरी तरह खुले रहे और जो शिक्षक हड़ताल से अलग हैं वो नियमित शिक्षा को उन स्कूलों में संभाले रहे. कुल मिलाकर आपसी फूट में शिक्षकों की अच्छी खासी किरकिरी कर दी है. इसका दोषी चाहे जो भी हो लेकिन कहीं न कहीं शिक्षकों के बीच के मतभेद ने शिक्षकों की एकता को कमजोर किया है और हड़ताल के नाम पर पूरे प्रशासन को हिला देने वाले समुदाय ने पहली बार इतना कमजोर प्रदर्शन किया है.
यदि यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा क्योंकि यह किसी गुमनाम संगठन का आंदोलन नहीं था. बल्कि इस आंदोलन को उन लोगों ने बुलाया था जिन्हें पूरा प्रदेश कई अरसे से सफल आंदोलन करता हुआ देख रहा है. ऐसे में यह विषय मंथन का हो सकता है कि आम शिक्षकों ने हड़ताल स्थल से दूरी बनाई तो बनाई क्यों. बताते हैं कि इसके पीछे की वजह कई है और मुख्य वजह नेतृत्वकर्ताओं ने तो आपस हाथ मिला लिया था, लेकिन नीचे के कार्यकर्ताओं के दिल नहीं मिल पाए थे. यही वजह है कि जिन लोगों ने हड़ताल के नाम पर अवकाश लिया है उन्होंने भी धरना स्थल से दूरी बनाए रखी. कई शिक्षक तो अपने ग्रुप के साथ पर्यटन स्थल की ओर रवाना हो गए थे और कई ने अवकाश के नाम पर घर पर रहना ही बेहतर समझा. यही वजह है कि भीड़ नदारद रही और स्कूल खुले रहे.
बहरहाल शिक्षक नेताओं को यह एक बार फिर सोचना चाहिए कि कहानी उनकी आपसी लड़ाई का शिकार वह शिक्षक तो नहीं हो रहे हैं जो रिटायरमेंट के करीब है. क्योंकि एक बार खाली हाथ रिटायर होने के बाद उन्हें कुछ नहीं मिलना है. सवाल गंभीर है और सोचना उन लोगों को है जिन्होंने शिक्षकों से ज्यादा अपने संघ को प्राथमिकता दे दी है. बीते कई दिनों से सोशल मीडिया में जो तीर छोड़े जा रहे हैं वह न तो मीडिया कर्मियों की नजर से बचे हैं और न आम शिक्षकों से हो सकता है कि जो संगठन हड़ताल में शामिल नहीं थे वह इस बात को लेकर खुश हो जाए कि उनकी जीत हुई है और हो सकता है जिन्होंने हड़ताल का आह्वान किया है वह इस बात को लेकर खुश हो जाए कि उन्होंने संघर्ष किया है. अगर इन तस्वीरों के बाद भी यही स्थिति बनती है तो फिर संघर्ष का पर्याय इन शिक्षकों का भगवान ही मालिक होगा.