सूरजपुर: सपहा गांव की आवाज आखिरकार प्रशासन के कानों तक पहुंच ही गई. 16 मई 2025 से सुशासन तिहार के विरोध में शुरू हुआ अनिश्चितकालीन धरना 109वें दिन जाकर खत्म हुआ. सवाल यह नहीं कि धरना खत्म हुआ, बल्कि यह है कि प्रशासन को नींद से जागने में 109 दिन क्यों लग गए? धरना स्थल पर 1 सितंबर को जनपद पंचायत ओडगी के सीईओ निलेश सोनी, एसडीओ पीएचई विभाग, विद्युत विभाग के अधिकारी और अन्य अमला पहुंचा.
ग्रामीणों से घंटों बातचीत हुई, आश्वासन दिया गया कि उनकी सभी मूलभूत मांगें जल्द पूरी की जाएंगी. इसके बाद ग्रामीणों ने आंदोलन खत्म करने की घोषणा कर दी. लेकिन गांववालों की नजर अब प्रशासन के अमल पर है, क्योंकि सपहा के लोग कह रहे हैं—बातों से पेट नहीं भरता, काम चाहिए.
109 दिन का इंतजार, क्यों?
धरना 16 मई से शुरू हुआ और 1 सितंबर को समाप्त हुआ. बीच के इन 109 दिनों में ग्रामीण सड़क पर बैठे रहे, लेकिन प्रशासन मौन दर्शक बना रहा. सवाल उठ रहा है कि आखिर किस आदेश या इशारे का इंतजार था? क्या ऊपर से दबाव का अभाव था या फिर सीईओ निलेश सोनी खुद पहल नहीं करना चाहते थे? ग्रामीणों का कहना है कि हमने हर स्तर पर आवाज उठाई, लेकिन किसी ने सुनी ही नहीं. अधिकारी आते तो धरना पहले ही खत्म हो जाता. पर उन्होंने हमें अनदेखा किया.
ग्रामीणों की मांगें, जो बनीं संघर्ष का कारण
सपहा के लोगों का आंदोलन केवल नाराजगी नहीं था, बल्कि बुनियादी जरूरतों की लड़ाई थी. सड़क, बिजली और पानी की सुविधा, राशन वितरण में सुधार और पारदर्शिता, स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता, सरकारी योजनाओं का लाभ गांव तक पहुँचना. ग्रामीण कहते हैं कि इन मांगों के बिना गांव की जिंदगी ठहर सी जाती है. बार-बार प्रशासन से गुहार के बाद भी जब सुनवाई नहीं हुई, तभी उन्होंने धरना देने का रास्ता चुना.
धरना खत्म, लेकिन सस्पेंस बरकरार
अधिकारियों ने वादा तो किया है, लेकिन ग्रामीणों का भरोसा अब भी डगमगाया हुआ है। वे पूछ रहे हैं- अगर हमारी मांगें इतनी जायज थीं तो 109 दिन तक क्यों टालमटोल किया गया? क्या प्रशासन अब वाकई काम करेगा या यह केवल आश्वासन बनकर रह जाएगा?
सपहा का यह आंदोलन केवल एक गांव की कहानी नहीं, बल्कि पूरे तंत्र की सुशासन की परख है. सुशासन तिहार मनाने वाले अफसरों के लिए यह बड़ा सवाल है कि क्या सुशासन केवल मंचीय भाषणों और सरकारी कार्यक्रमों तक सीमित है या फिर उसकी गूंज गांव की सड़कों तक भी पहुंचती है? धरना खत्म जरूर हुआ है, लेकिन सपहा की लड़ाई ने प्रशासन की संवेदनशीलता पर गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं.