दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 से ठीक पहले एक बार फिर मेंटल या इंटेलेक्चुअल डिसेबिलिटी से जूझ रहे वयस्कों के वोटर आईडी बनाने की मांग तेज हो गई है. दिल्ली राज्य संचालन समिति (SSCAE) के सदस्य डॉ सतेंद्र सिंह ने दो दिन पहले मुख्य चुनाव अधिकारी को इसके लिए पत्र भी लिखा है. पत्र में मांग की है कि मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक विकलांगता वाले वयस्कों का मतदाता के रूप में नामांकन के लिए कैंप लगाए जाएं. डाउन सिंड्रोम से जूझ रही अपनी बेटी के लिए लड़कर वोटर आईडी बनवाने वाले पिता ने अपनी कहानी के जरिये बताया कि स्पेशल बच्चों के पेरेंट्स के लिए अपने बच्चों की परवरिश के साथ साथ उनके अधिकारों की लड़ाई कितनी मुश्किल होती है.
जब पहली बार पता चला कि बेटी…
अनिल जोशी पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर रहे हैं. वो बताते हैं कि साल 1981 में मैं देश की नामी कंपनी टाटा ग्रुप में काम करता था. ये वो दौर था जब कंप्यूटर नया-नया आया था, तब कंप्यूटर इंजीनियर्स न के बराबर थे. जो थे भी उनको देश से बाहर जॉब करने के बहुत अवसर थे, लेकिन पारिवारिक हालातों के चलते मैं भारत में ही रहा. फिर शादी हुई और साल 1993 में मेरी बिटिया देवांशी का जन्म हुआ. जन्म के बाद ही डॉक्टर ने बताया कि ये नॉर्मल नहीं रहेगी. उनकी इस बात से हम भीतर से सहम गए. कई डॉक्टर मित्र थे, उन्होंने समझाया कि कैसे बेटी के माइल स्टोन डिले रहेंगे. इंसानों के बारे में ये पहली बार सुना था. मैंने डॉक्टर से पूछा तो बताया कि अपनी उम्र के हिसाब से वो लेट रेस्पांस करेगी.
जॉब छोड़कर कंसल्टेंसी शुरू की
अनिल जोशी बताते हैं कि डॉक्टर्स ने यह भी कहा था कि इस बारे में हमें ज्यादा जानकारी नहीं है. हम पहचान तो सकते हैं लेकिन इसके बारे में ज्यादा नहीं बता सकते. ये सब सुनकर अब हमें भी समझ नहीं आ रहा था कि आगे कैसे क्या होगा. लोग कहते थे कि अब क्या होगा, ऐसे बच्चे की परवरिश करना टफ होता है. इन बच्चों का कोई अस्तित्व नहीं होता. जब सब तरफ अंधकार नजर आ रहा था, तब हम पति-पत्नी ने इस बारे में पढ़ना शुरू किया. हमें बहुत जल्दी समझ आ गया कि ऐसे बच्चों को जल्दी से ही ट्रेनिंग शुरू हो जाए तो ये सीखना शुरू कर देते हैं. बेटी का डाउन सिंड्रोम धीरे-धीरे हमें पुख्ता हो रहा था. अनिल जोशी बताते हैं कि मुझे बेटी को समय देना मुश्किल हो रहा था तो मैंने जॉब छोड़कर अपनी कंसल्टेंसी शुरू की.
बेटी ने ऐसे पास की 10वीं की परीक्षा
वो बताते हैं कि हमें पता था कि ये समस्या दिमाग से रिलेटेड है, इसमें शरीर पर भी असर रहता है. डाउन सिंड्रोम के लोगों के हाथ पांव सही काम करते हैं लेकिन वो स्थिति का आकलन देर से कर पाते हैं. हमने बेटी को टायलेट ट्रेनिंग वगैरह दी और फिर उसे रेगुलर स्कूल में ही डाला. उस दौर में ही अहसास हआ कि ऐसे लाखों करोड़ो बच्चे हैं जिनके अभिभावकों को तो डाउन सिंड्रोम का मतलब भी पता नहीं था. ‘डाउन’ किसी साइकेट्रिस्ट का नाम है, उन्हीं के नाम पर इस सिंड्रोम का नाम पड़ा था. हम पढ़ने के साथ साथ ऐसे पेरेंट्स से भी मिल रहे थे जिनके पास ऐसे बच्चे हैं. फिर उस स्कूल के टीचर्स से भी मेलजोल बढ़ाया. हमने नेशनल ट्रस्ट से भी गाइडेंस ली जो ऐसे बच्चों के लिए काम करता है.
रेगुलर स्कूल में अच्छा रेसपांस दे रही थी
अनिल जोशी बताते हैं कि हम पति पत्नी ने बच्ची जब छोटी थी तब ही तय किया था ऐसे बच्चों के लिए काम करेंगे. हम साथ ही बच्ची के डेवलेपमेंट पर काम कर रहे थे. बच्ची रेगुलर स्कूल में अच्छा रेसपांस दे रही थी, वो बहुत लेट सीख रही थी, भले ही उसका ज्ञान आम बच्चों से कम था. हम उसके फ्रेंड्स और टीचर्स को घर बुलाते थे, उन्हें समझाते थे. तब नेशनल ट्रस्ट बोर्ड जो कानून बना रहा था, उस बोर्ड से भी मैं जुड़ा. उसी दौर में मेरी बेटी ने रेगुलर स्कूल से आठवीं की पढ़ाई पूरी कर ली. मुझे पूरा यकीन है कि अगर ये बच्चे भी रेगुलर स्कूल में पढ़ें तो ये और तेजी से सीखते हैं. लेकिन बोर्ड परीक्षा के लिए मुझे अहसास हुआ कि बेटी बड़ी हो गई है और उसकी पढ़ने की स्पीड काफी कम है. तब मैंने बच्चे को वहां से निकालकर नेशनल ओपन स्कूल से दो दो विषयों में पढ़ा-पढ़ाकर दसवीं की परीक्षा दिलाई, मेरी पत्नी ने उसे बहुत पढ़ाया और बेटी ने खुद लिखकर परीक्षा दी.
12वीं में थी, मैं दिल्ली में आ गया
अनिल जोशी बताते हैं कि दसवीं की परीक्षा लिखने वाली ऐसी स्पेशल बच्चा थी जिसने नॉर्मल एज के बच्चों की तरह उसी उम्र में दसवीं की पढ़ाई पूरी कर ली थी. इसके बाद 12वीं में मल्टी नेशनल में काम का ऑफर मिला और मैं दिल्ली में आ गया. यहां आकर भी एनआईओएस से ही 12वीं की पढ़ाई कराई. बेटी ने सामान्य बच्चों की उम्र में ही 12वीं की परीक्षा खुद लिखकर पास कर ली तो उसका भी कॉन्फीडेंस बढ़ गया.
मेरा बेटा भी 20 साल से दे रहा वोट
मुस्कान संस्था की डॉ शांति औलक कहती हैं कि मेरा 42 वर्षीय बेटा भी डाउन सिंड्रोम से ग्रसित है. लेकिन उसे राजनीति का इतना पता है कि कौन सी पार्टी उसे पसंद है. वो करीब 20 सालों से वोट डाल रहा है. ऐसे स्पेशल बच्चों को अगर वोटिंग राइट्स के बारे में सिखाया जाए तो उन्हें समझ में आ सकता है.