यूपी में एक ऐसे व्यक्ति को जज (एचजेएस कैडर) के रूप में नियुक्त किया जाएगा, जिसके ऊपर पूर्व में पाकिस्तान के लिए जासूसी करने का आरोप लग चुका है. हालांकि, इस मामले में वह ‘बाइज्जत बरी’ हो चुका है. जिसके चलते इलाहाबाद हाई कोर्ट ने प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि वह उपरोक्त व्यक्ति को एडीजे के रूप नियुक्ति करे.
दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक व्यक्ति को न्यायाधीश एचजेएस कैडर यानि हाई ज्यूडिशियरी सर्विस के रूप में नियुक्त करने का आदेश दिया है, जबकि जासूसी के आरोपों के कारण उसे लगभग सात साल पहले इस पद पर नियुक्त करने से मना कर दिया गया था. हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता प्रदीप कुमार को 15 जनवरी 2025 तक नियुक्ति पत्र जारी करने का निर्देश दिया है. उन्होंने 2017 में यूपी उच्च न्यायिक सेवा की परीक्षा पास की थी. तब से उन्हें नियुक्ति नहीं मिली है.
याची प्रदीप कुमार पर 2002 में पाकिस्तान के लिए जासूसी करने का आरोप लगाया गया था. उन्हें 2014 में मुकदमे में बरी कर दिया गया था. मुकदमा 2004 में शुरू हुआ था. हालांकि, 2016 में यूपी उच्चतर न्यायिक सेवा (सीधी भर्ती) परीक्षा में उनके अंतिम चयन के बावजूद उन्हें नियुक्ति पत्र देने से इनकार कर दिया गया था.
जस्टिस सौमित्र दयाल सिंह और जस्टिस दोनादी रमेश की पीठ ने कहा कि राज्य के पास ऐसा कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि याचिकाकर्ता ने किसी विदेशी खुफिया एजेंसी के लिए काम किया है. कोर्ट ने कहा कि मुकदमे में उसे बरी किया जाना ‘सम्मानजनक’ है.
खंडपीठ ने कहा कि याची को उसके विरुद्ध चलाए गए दो आपराधिक मुकदमों में ‘सम्मानपूर्वक बरी’ किया गया था. किसी भी मामले में अभियोजन पक्ष की कहानी में सच्चाई का कोई तत्व नहीं पाया गया था. उन आदेशों को अंतिम रूप दे दिया गया है. कोर्ट ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता को बरी किये जाने से उसपर लगा कलंक प्रभावी रूप से मिट जाना चाहिए था. उसे किसी भी निराधार संदेह से मुक्त होकर अपने जीवन और कैरियर में आगे बढ़ने की अनुमति मिल जानी चाहिए थी.
अदालत के समक्ष अतिरिक्त मुख्य स्थायी अधिवक्ता ने तर्क दिया था कि याची पर 2002 में एक दुश्मन देश पाकिस्तान के लिए जासूस के रूप में काम करने के गंभीर आरोप थे और उसे राज्य सरकार के विशेष कार्य बल (एसटीएफ) और सैन्य खुफिया के संयुक्त अभियान में गिरफ्तार किया गया था.
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि यद्यपि आपराधिक मुकदमे विफल हो गए फिर भी राज्य सरकार के पास यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त सामग्री थी कि याचिकाकर्ता के चरित्र को प्रमाणित नहीं किया जा सकता है और इस प्रकार वह नियुक्ति के लिए पूरी तरह से अयोग्य था.
कोर्ट ने यह भी कहा कि मुकदमे के दौरान ऐसा कोई सबूत पेश नहीं किया गया जिससे साबित हो सके कि याचिकाकर्ता ने देश के हितों के खिलाफ काम किया है अथवा किसी साजिश में शामिल रहा है या आईपीसी की धारा 124-ए के तहत कोई अपराध किया है. इसके अलावा उसे मुकदमे में बाइज्जत बरी कर दिया गया. इसके अतिरिक्त न्यायालय ने इस रुख को भी खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता का मूल्यांकन उसके पिता के पिछले कार्यों के आधार पर किया जाना चाहिए, जिन्हें रिश्वतखोरी के आरोपों के कारण 1990 में न्यायाधीश के पद से बर्खास्त कर दिया गया था.