भारत-श्रीलंका के बीच पौराणिक ही नहीं बल्कि DNA का भी कनेक्शन है. पहली बार श्रीलंका में 55 हजार साल पुराने भारतीय DNA वाले आदिवासियों का पता चला है. इन्हें वेद्दा कहा जाता है. ये श्रीलंका में बसी पहली आबादी थी, जो कि भारत के यूपी और दक्षिणी राज्यों से माइग्रेट होकर श्रीलंका पहुंची थी.
BHU में परम शिवाय कंप्यूटर की मदद से हुए रिसर्च में यह बातें सामने आई हैं. यह रिसर्च अमेरिका के एक प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय जर्नल ‘माइटोकॉन्ड्रियान’ में पब्लिश हुई है. इसमें BHU और श्रीलंका के कोलंबो यूनिवर्सिटी समेत भारत के 5 संस्थानों के 10 जीन वैज्ञानिकों की रिसर्च रिपोर्ट शामिल है.
रिसर्च के मुताबिक, शुरू में इन आदिवासियों की आबादी महज 2500 के आसपास थी. लेकिन, करीब 35 हजार साल पहले से इनकी जनसंख्या बढ़नी शुरू हुई और 25 हजार साल पहले तक श्रीलंका में इनकी आबादी 6 लाख तक पहुंच गई. जबकि, आज की बात करें तो इस समय श्रीलंका में महज 10 हजार वेद्दा आदिवासी ही जिंदा बचे हैं.
उनका बाहरी दुनिया के लोगों से बहुत कम कनेक्शन होता है. क्योंकि न वे नौकरी करते हैं और न ही वहां के वोटर्स हैं. इनका काम केवल शिकार करना और भोजन जुटाना है.
रिसर्च के लिए काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU के जीन वैज्ञानिकों ने कुल 5 लाख जेनेटिक म्यूटेशन और 37 माइटोकॉन्ड्रियल जीनोम की डिटेल स्टडी की है. इस बिग डेटा का एनालसिस करने के लिए IIT-BHU के परम शिवाय सुपर कंप्यूटर की भी मदद ली गई. कंप्यूटर की DNA एनालसिस ने वेद्दा आदवासियों के 55 हजार साल से लेकर अभी तक की आबादी के बढ़ते-घटते क्रम को भी बताया है. हिस्टोग्राम से इनकी पूरी हिस्ट्री और लाइफ साइकिल के बारे में समझाया गया है.
श्रीलंका से आईं रिसर्चर अंजना वेलिकल ही वेद्दा लोगों का सैंपल लेकर BHU पहुंची थीं. वे जूलॉजी डिपार्टमेंट में जीन वैज्ञानिक प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे से मिलीं और उनको सैंपल मुहैया कराया. इन सैंपल की जांच शुरू हुई तो पता लगा कि इनका रिश्ता भारत से भी है.
सुपर कंप्यूटर ने DNA जांच से मिले डेटा को काफी तेजी से प्रॉसेस किया. 24 घंटे का काम 1 ही घंटे में समेट दिया. इसमें पता लगा कि 55 हजार साल पहले करीब 2500 वेद्दा लोग श्रीलंका में पहुंचे थे. करीब 35 हजार साल पहले इनकी पॉपुलेशन बढ़नी शुरू हो गई और 10 हजार तक पहुंची. फिर करीब 25 हजार साल पहले इनकी जनसंख्या बढ़कर 6 लाख हो गई. फिर तब से लेकर करीब 3 हजार साल पहले तक यह जनसंख्या स्थिर रही. लेकिन इसके बाद इनकी संख्या घटती चली गई.
इसके बाद श्रीलंका में सिंहली और तमिलों के प्रभाव बढ़ने से इनकी आबादी में गिरावट शुरू हो गया और अब महज 10 हजार वेद्दा लोग ही जिंदा बचे हैं. आज श्रीलंका के कोस्टल इलाके से थोड़ी दूर जंगलों में ये शिकार करके अपना जीवन चलाते हैं.
प्रो. ज्ञानेश्वर चौबे ने कहा कि 35 हजार साल पहले इनकी आबादी 2500 से बढ़कर 6 लाख हो गई. इसके पीछे ये वजह है कि करीब 35 हजार साल पहले माइक्रोलिथिक पीरियड का दौर था. इस दौर में इन्होंने तीर-धनुष बनाकर शिकार करना शुरू कर दिया.
पत्थरों से छोटे और नुकीले औजार बनाए, जो कि शिकार में काफी इफेक्टिव होता था. जब, शिकार का काम तेजी से बढ़ा तो, खाने-पीने की समस्या से छुटकारा मिला. फिर इन आदिवासियों ने अपनी जनसंख्या बढ़ाने पर फोकस किया. तभी से आबादी तेजी से बढ़ी और 30 हजार साल तक कमी नहीं आई.
जीन वैज्ञानिक प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे ने कहा, “रिसर्च की मेन फाइंडिंग कहती है कि भले ही वेद्दा की भाषा किसी भी भारतीय जाति या जनजाति से न मिलती हो, लेकिन उनका DNA भारत के लोगों के संग जेनेटिक रिश्ता रखता है. “ऑटोसोमल म्यूटेशन एनालिसिस वेद्दा और भारतीय जनजातियों के बीच एक करीबी आनुवंशिक संबंध दिखा रहे हैं.”
प्रो. चौबे ने कहा कि आज इस आबादी का अस्तित्व खतरे में है. इन्हें बचाने के लिए सरकारों को आगे आना चाहिए, क्योंकि ये श्रीलंका की पहली आबादी है. इन्हें बचाना एक विरासत को सहेजने जैसा होगा.
BHU के आर्कियोलॉजिस्ट डॉ. सचिन तिवारी के मुताबिक, माइक्रोलिथ इंडस्ट्री टेक्नोलॉजी आज से करीब 45 हजार साल पहले शुरू हुई. ये करीब 2 हजार साल पहले तक जारी रहा. पत्थरों में सिलिका की मात्रा ज्यादा होती थी.
शैल चित्र कला से कुछ ऐसे साक्ष्य मिले हैं, जिसमें दिखता है कि लकड़ी के ऊपरी हिस्से में पत्थरों के छोटे औजार को फिट किया गया है. लकड़ी के ऊपरी हिस्से में गोंद लगाते थे. फिर उस पर पत्थरों के औजार को चिपका देते थे और सूखने के लिए छोड़ देते थे.
इस तरह के टूल को जानवरों का शिकार करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. पत्थर लगने की वजह से लकड़ी के ऊपरी हिस्से का भार बढ़ जाता था और ये बड़ी स्पीड से प्रहार करता था. इन्हीं लकड़ियों को तीर की तरह से भी धनुष में इस्तेमाल किया जाता था.
रिसर्च को एनिशिएट करने वाली श्रीलंका की साइंटिस्ट अंजना वेलिकल ने कहा कि भारतीय उपमहाद्वीप में हर एक जाति या जनजाति का अपने पड़ोसी आबादी के साथ जेनेटिक रिलेशन दिखाता है. इसको आइसोलेशन-बाई-डिस्टेंस मॉडल कहते हैं. इस रिसर्च ने इस सिद्धांत को भी नकार दिया है. वेद्दा के स्पेशिफिक डेमोग्राफिक हिस्ट्री की खोज भारत के वैज्ञानिकों की बड़ी सफलता मिली है.
श्रीलंका से आईं अंजना वेलिकल ने बताया कि ये लोग किसी खास भगवान को नहीं मानते. बल्कि, जहां जिस आदिवासी के प्रभाव में हैं, वहां पर उसी धर्म का पालन करते हैं. इनका बाहरी दुनिया को कोई भी लेन-देन नहीं है. हालांकि, श्रीलंकाई सरकार की कुछ नीतियों की वजह से भी इनकी आबादी घटने लगी है. अब ये विलुप्त की कैटेगरी में आ चुके हैं. ये मांसाहार पर ही जीते हैं.
CSIR-CCMB, हैदराबाद के जेसी बोस फेलो डॉ. के. थंगराज ने बताया कि वेद्दा ही श्रीलंका के मूल यानी कि सबसे पहले निवासी हैं. ये लोग सबसे पहले से वहां पर निवास कर रहे हैं. अपनी अनूठी भाषाई और सांस्कृतिक खासियत की वजह से लंबे समय से वैज्ञानिकों और इतिहासकारों को अपनी ओर खींचते हैं. लेकिन अभी तक इनके माइग्रेशन पर कोई जेनेटिक स्टडी कभी नहीं हुई थी.
ऐसा पहली बार है इनका इंडियन कनेक्शन पता लगा है. कोलंबो विश्वविद्यालय श्रीलंका की साइंटिस्ट डॉ. रुवंडी रणसिंह ने कहा कि माइटोकॉन्ड्रियल DNA एनालिसिस भारत-श्रीलंका के बीच एक प्राचीन कड़ी की तरह से काम करेगा. वेद्दा आदिवासियों की आबादी श्रीलंका के सिंहली और तमिल लोगों के साथ कम और भारत के साथ अनुवांशिक रूप से ज्यादा जुड़ी हुई है. इससे साफ होता है कि यह जनजाति भारत से ही श्रीलंका पहुंची.
ज्ञान लैब के रिसर्चर शैलेश ने कहा कि सुपर कंप्यूटर परम शिवाय लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम पर काम करता है. इसकी डाटा एनालिसिस कैपेसिटी इतनी ज्यादा है कि आम कंप्यूटर द्वारा 7 दिन में किए गए काम को ये महज 1-2 घंटों में ही पूरा कर सकता है. 5 लाख जेनेटिक म्यूटेशन का काम नॉर्मल कंप्यूटर पर करना आसान नहीं था. परम शिवाय ने इस बड़े रिसर्च को पूरा करने में काफी आसान कर दिया.
रिसर्चर प्रज्जवल प्रताप सिंह ने कहा कि वेद्दा लोग सिंहली और श्रीलंकन तमिल के बीच में रहते हैं. लेकिन उनका DNA सिंहली और तमिलियंस के साथ कम, बल्कि भारत के आदिवासियों से ज्यादा जुड़ाव दिखा. वेद्दा लोग 55 हजार साल पहले भारत से ही श्रीलंका गई. उसके बाद श्रीलंका में सिंहली और तमिल लोगों का माइग्रेशन हुआ.