काछनदेवी ने दी दशहरा मनाने की अनुमति:10 साल की पीहू पर सवार हुईं माता; निभाई गई 617 साल पुरानी परंपरा

बस्तर दशहरा की सबसे महत्वपूर्ण काछनगादी की रस्म 21 सितंबर की शाम निभाई गई है। 10 साल की बालिका पीहू दास पर काछनदेवी सवार हुईं। फिर बस्तर राजपरिवार के सदस्यों को बेल के कांटों से बने झूले पर झूलकर दशहरा मनाने की अनुमति दीं। करीब 617 साल से चली आ रही परंपरा को निभाया गया।

दरअसल, जगदलपुर के भंगाराम चौक में स्थित काछनगुड़ी में रस्म को निभाया गया है। रविवार शाम बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव समेत अन्य सदस्य काछनगुड़ी पहुंचे थे।

यहां पीहू पर काछन​​​​​देवी सवार हुईं। फिर परंपरा अनुसार बेल के कांटों से बने झूले पर सवार होकर उन्होंने आशीर्वाद स्वरूप कमलचंद भंजदेव को फूल देकर पर्व मनाने अनुमति दीं।

राज घराने की थी बेटियां

कमलचंद भंजदेव ने कहा कि, काछन और रैला माता दोनों राजघराने की बेटियां थीं, जिन्होंने आत्म हत्या कर ली थी। उनकी पवित्र आत्मा यहीं पर विराजती हैं। काछन माता और रैला माता एक छोटी कन्या पर आती हैं।

सालों से यह परंपरा चली आ रही है कि पितृ पक्ष के आखिरी दिन राज परिवार के सदस्य खुद आशीर्वाद लेने आते हैं। माता फूल के रूप में आशीर्वाद दीं हैं। जिससे बस्तर दशहरा निर्विघ्न संपन्न हो।

यह है मान्यता

पनका जाति की कुंवारी कन्या ही इस रस्म को अदा करती हैं। 22 पीढ़ियों से इसी जाति की कन्याएं इस रस्म की अदायगी कर रही हैं। पिछले साल भी पीहू ने इस रस्म को निभाया था।

इससे पहले अनुराधा ने विधान पूरा किया था। पीहू ने बताया कि उसे इस रस्म को पूरा करने का मौका मिला है। वो बहुत खुश है।

यह भी जानिए

कुछ जानकारों ने बताया कि, बस्तर महाराजा दलपत देव ने काछनगुड़ी का जीर्णोद्धार करवाया था। करीब 617 साल से यह परंपरा इसी गुड़ी में संपन्न हो रही है। काछनदेवी को रण की देवी भी कहा जाता है।

पनका जाति की महिलाएं धनकुल वादन के साथ गीत भी गाती हैं। नवरात्र से ठीक एक दिन पहले राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव काछनगुड़ी पहुंचकर देवी से दशहरा मनाने की अनुमति लिए।

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