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इस महाकुंभ में होने वाले 6 शाही या अमृत स्नान का जानिए महत्व, मध्यकाल से जुड़ी है ये परंपरा

कुंभ मेला सनातन धर्म के सबसे बड़े और सबसे पवित्र धार्मिक आयोजनों में से एक है, जो हर 12 वर्ष में एक बार होता है. यह सिर्फ धार्मिक आयोजन ना होकर खगोलीय घटनाओं से जुड़ी एक चिर पुरातन परंपरा है, जिसमें ग्रहों की स्थिति का विशेष महत्व होता है और इसी आधार पर इसका आयोजन होता है. प्रयागराज में 13 जनवरी से 26 फरवरी तक चलने वाला महाकुंभ 144 वर्ष बाद आया है.

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सूर्य, चंद्रमा और गुरु (बृहस्पति) ग्रहों की स्थिति के आधार पर कुंभ का आयोजन होता है और इसी आधार पर स्थान का निर्धारण भी होता है. कुंभ मेले का आयोजन चार स्थानों- प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में होता है. इस आयोजन की चार श्रेणियों हैं- कुंभ, अर्धकुंभ, पूर्ण कुंभ और महाकुंभ.

कुंभ 12 साल में एक बार चारों जगहों हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयागराज में बारी-बारी से आयोजित होता है.

अर्धकुंभ का आयोजन सिर्फ प्रयागराज और हरिद्वार में होता है. इन दोनों जगह हर 6 साल में एक बार अर्धकुंभ का आयोजन होता है.

पूर्ण कुंभ सिर्फ प्रयागराज में हर 12 साल में एक बार आयोजित होता है.

महाकुंभ एक दुर्लभ आयोजन है जो 12 पूर्ण कुंभ के बाद यानी 144 साल बाद आता है. इसीलिए इस आयोजन को महाकुंभ कहते हैं. यह सिर्फ प्रयागराज में आयोजित होता है, जहां गंगा, यमुना और सरस्वती (पौराणिक) नदियों का पवित्र संगम होता है.

महाकुंभ के दौरान तीर्थयात्रियों को त्रिवेणी संगम में अनुष्ठान स्नान करके खुद को आध्यात्मिक रूप से शुद्ध करने का अवसर मिलता है. प्रयागराज महाकुंभ में इस बार संगम में पवित्र स्नान के लिए 6 प्रमुख तिथियां निर्धारित हैं-

पौष पूर्णिमा: 13 जनवरी

मकर संक्रांति: 14 जनवरी

मौनी अमावस्या: 29 जनवरी

वसंत पंचमी: तीन फरवरी

माघी पूर्णिमा: 12 फरवरी

महाशिवरात्रि: 26 फरवरी

मान्यता है कि इन तिथियों पर गंगा, यमुना और सरस्वती (पौराणिक) के त्रिवेणी संगम में स्नान अनुष्ठान करने से आत्मा शुद्ध होती है, पापों का प्रायश्चित होता है. सनातन धर्म की रक्षा के लिए 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने अखाड़ा परंपरा की शुरुआत की थी. कुल 13 अखाड़े हैं, जो महाकुंभ में आते हैं और अपना शिविर डालते हैं. स्नान की प्रमुख तिथियों पर ये अखाड़े हाथी, घोड़ा, ऊँट के साथ भव्य जुलूस निकालते हैं. इनसे जुड़े संत, संन्यासी और नागा साधु 17 श्रृंगार करके संगम तट पर आते हैं और स्नान करते हैं, जिसे अमृत, राजसी या शाही स्नान नाम से भी जाना जाता है. अखाड़ों के स्नान करने के बाद ही आम लोग संगम में डुबकी लगाते हैं. अमृत या शाही स्नान इस धार्मिक और आध्यात्मिक आयोजन के मुख्य आकर्षण होते हैं.

अमृत या शाही स्नान का महत्व

अमृत, राजसी या शाही स्नान- इस नामों के पीछे विशेष महत्व और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है. माना जाता है कि नागा साधुओं को उनकी धार्मिक निष्ठा के कारण सबसे पहले स्नान करने का अवसर दिया जाता है. वे हाथी, घोड़े और रथ पर सवार होकर राजसी ठाट-बाट के साथ स्नान करने आते हैं. इसी भव्यता के कारण इसे अमृत स्नान (शाही या राजसी स्नान) नाम दिया गया है. एक अन्य मान्यता के अनुसार, मध्यकाल में राजा-महाराज, साधु-संतों के साथ भव्य जुलूस लेकर स्नान के लिए निकलते थे. इसी परंपरा ने अमृत स्नान (अमृत स्नान) की शुरुआत की. इसके अलावा यह भी मान्यता है कि महाकुंभ का आयोजन सूर्य और गुरु जैसे ग्रहों की विशिष्ट स्थिति को ध्यान में रखकर किया जाता है. ग्रहों की चाल के आधार पर कुछ विशेष तिथियां पड़ती हैं. मान्यता है कि इन विशेष तिथियों पर पवित्र नदियों में स्नान करने से आध्यात्मिक शुद्धि, पापों का प्रायश्चित, पुण्य और मोक्ष प्राप्ति होती है. इसलिए भी इन तिथियों पर होने वाले स्नान को अमृत स्नान कहा जाता है.

महाकुंभ का सांस्कृतिक महत्व

महाकुंभ न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है. इसमें अमृत स्नान के साथ मंदिर दर्शन, दान-पुण्य और अन्य धार्मिक अनुष्ठान शामिल होते हैं. महाकुंभ में भाग लेने वाले नागा साधु, अघोरी और संन्यासी सनातन धर्म और परंपरा की गहराई और विविधता को दर्शाते हैं. महाकुंभ का यह आयोजन सनातन धर्म की आस्था, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है.

क्या है कुंभ का इतिहास, कहां से हुई शुरुआत?

कुंभ मेले की उत्पत्ति सनातन धर्म की पौराणिक कथाओं, विशेष रूप से समुद्र मंथन की कथा से होती है. इसके मुताबिक दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तो असुरों ने देवलोक पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था. असुरों से पराजित होने के बाद सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए और उन्हें सारा व्रतांत सुनाया. तब भगवान विष्णु ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा. सारे देवता भगवान विष्णु के निर्देशों का पालन करते हुए असुरों के साथ संधि करके क्षीर सागर से अमृत निकालने के प्रयास में लग गए.

समुद्र मंथन से अमृत कलश निकला तो देवताओं के इशारे पर इंद्र के पुत्र जयंत उसे लेकर अदृश्य हो गए. गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम के बाद उन्हें पकड़ लिया. फिर अमृत कलश पर कब्जा प्राप्त करने के लिए देवताओं और असुरों में 12 दिन तक युद्ध चला रहा. कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों पर अमृत की कुछ बूंदें गिरी थीं. ये चार स्थान हैं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक. इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुंभ मेले का आयोजन होता है. साथ ही मान्यता है कि देवलोक के 12 दिन, पृथ्वी के 12 साल के बराबर होते हैं. इसलिए हर 12 वर्ष में एक बार इन चारों स्थानों पर कुंभ का आयोजन होता है.

कुंभ के आयोजन की तिथि और स्थान कैसे तय होता है?

कुंभ मेले का आयोजन किस स्थान पर कब होगा यह ग्रहों और राशियों पर निर्भर करता है. कुंभ मेले में सूर्य, चंद्र और गुरु (बृहस्पति) ग्रहों का विशेष महत्व होता है. जब सूर्य और गुरु एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुंभ मेले का आयोजन होता है और इसी आधार पर स्थान और तिथि निर्धारित की जाती है. जब गुरु (बृहस्पति) वृषण राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती (पौराणिक)  के संगम पर होता है. जब सूर्य मेष राशि और गुरु कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में गंगा नदी के किनारे होता है. जब सूर्य और गुरु का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब कुंभ मेला नासिक में गोदवरी नदी के किनारे आयोजित होता है. जब गुरु सिंह राशि और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर होता है. गुरु के सिंह राशि में प्रवेश के कारण ही इसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं.

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