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‘मात्र दो पैसा…’, मालवीय जी ने अंग्रेज वायसराय को समझा दिया कुंभ का इकोनॉमिक्स, अमेरिकी विचारक बोले- गोरों के लिए ये समागम कल्पना से परे

Prayagraj Kumbh Mela 2025: वर्ष 1942 में अंग्रेज वायसराय लिनलिथगो कुंभ का जमघट देखने पहुंचे. साथ में थे मदन मोहन मालवीय. लाखों लोगों का रेला. कांपते-ठिठुरते श्रद्धालु. संगम तट पर डुबकी लगाती भीड़. लंदन का बाबू प्रयागराज के तट पर ये जमघट देखकर हैरान रह गया. उन्होंने उत्सुकतावश मालवीय जी से पूछा- इतने लोगों को कुंभ का न्योता देने में बड़ा धन और श्रम लगता होगा?

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मालवीय जी ने मुस्कुराते हुए कहा- मात्र दो पैसे! अंग्रेज अफसर लिनलिथगो महाहैरान. ‘केवल दो पैसे, ये कैसे संभव है’, रहस्य समझने के लिए लिनलिथगो ने पूछा? मालवीय जी ने उनकी जिज्ञासा का तुरंत समाधान किया. उन्होंने जेब से एक लंबा सा पंचांग निकाला. इसे अंग्रेज अफसर को दिखाते हुए उन्होंने कहा- ‘इस दो पैसे के पंचांग से भारत भर के लोग जान जाते हैं कि कुंभ कब है, स्नान की तिथियां कब हैं और वे स्वयं श्रद्धा से इस तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ते हैं. ‘

बता दें कि प्रयागराज के अभिलेखागार से मिले आकड़ों के आधार पर टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया कि 1882 में महाकुंभ के आयोजन में 20,288 रुपये खर्च हुए थे. जबकि साल 2025 का महाकुंभ का बजट 7500 करोड़ रुपये है. अगर बार के कुंभ यानी कि 1894 के आयोजन में 23 करोड़ की आबादी में से लगभग 10 लाख श्रद्धालुओं ने स्नान किया था. इस आयोजन पर 69,427 रुपये खर्च हुए थे.

महाकुंभ का रहस्य पश्चिम के विद्वानों को हमेशा आकर्षित करता आया है. इस बार के महाकुंभ में एप्पल के को फाउंडर स्टीव जॉब्स की पत्नी लॉरेन पॉवेल जॉब्स का आना और कल्पवास पर जाना भले ही चर्चा में हो, लेकिन ये ट्रेंड सदियों से चला आ रहा है.

और इसकी कड़ी मेगास्थनीज (ईसा पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी), फाहियान (399 से 411 ई.) ह्वेनसांग (7वीं) तक जाती है. कुंभ के अमृत की जिज्ञासा, अमरता की खोज और पाप को जल से धो डालने की बलवती इच्छा की तलाश में विश्व भर ज्ञानी जन हर 12 साल बाद भटकते-भटकते कुंभ तक पहुंच जाते हैं.

हम जैसे गोरों के लिए कल्पना से परे

भारत को मानव जाति का पालना, इतिहास की जननी और परम्पराओं की परदादी कहने वाले अमेरिकी विचारक और लेखक मार्क ट्वैन प्रयागराज के किनारे लाखों की इस भीड़ को देख विस्मित हैं. उन्होंने आज से सवा सौ साल पहले (1894-95) इस अदभुत जमघट का दौरा किया था. अंग्रेजों के दौर के इस भारत को देख मार्क ट्वैन ने अपनी किताब जो फालोइंग द इक्वेटर: एक जर्नी अराउंड द वर्ल्ड; जो 1887 में प्रकाशित हुई, में लिखा है,

“यह अद्भुत है, इस तरह के विश्वास की शक्ति, जो बड़ी संख्या में वृद्धों और कमजोरों तथा युवा और कमजोर लोगों को बिना किसी हिचकिचाहट या शिकायत के ऐसी अविश्वसनीय यात्राओं को शुरू करने के लिए प्रेरित कर सकती है और इसके परिणामस्वरूप होने वाले दुखों को बिना किसी पश्चाताप के सहन कर सकती है. यह श्रद्धावश किया जाता है, या यह भय में किया जाता है; मुझे नहीं पता है. लेकिन आवेग चाहे जो भी हो, इससे पैदा होने वाला कार्य हमारे जैसे लोगों, ठंडे गोरों के लिए कल्पना से परे और अद्भुत है.”

मार्क ट्वैन भारत में दो महीने तक रहे और 16 शहरों में घुमे. इसके बाद उन्होंने लिखा, “यह वास्तव में भारत है, सपनों और रोमांस का देश, अथाह धन और अथाह गरीबी का देश, वैभव और फटेहालपन का देश, महलों और झोंपड़ियों का, बाघों और हाथियों का, नागों और जंगलों का देश.”

आस्था वाकई चमत्कार कर सकती है

1894-95 में जनवरी से अप्रैल के बीच में मार्क ट्वैन जब प्रयागराज पहुंचे तो वे ग्रेट नॉर्दर्न होटल में रुके. भारत को लेकर उनका आकलन कुंभ को लेकर भी दिखता है, “ये तीर्थयात्री पूरे भारत से आए थे; उनमें से कुछ महीनों से यात्रा कर रहे थे, गर्मी और धूल में धैर्यपूर्वक आगे बढ़ रहे थे, थके हुए और गरीब, भूखे, लेकिन एक अटूट विश्वास और आस्था द्वारा समर्थित और संजोए हुए.”

तीर्थयात्रियों की आस्था का जिक्र करते हुए ट्ववैन कहते हैं, “उस जगह से दस कदम नीचे कमर तक पानी में डूबे हुए पुरुषों, महिलाओं और सुंदर युवतियों की भीड़ खड़ी थी और वे अपने हाथों में गंगाजल लेकर पी रहे थे. आस्था वाकई चमत्कार कर सकती है और यह इसका एक उदाहरण है. वे लोग प्यास बुझाने के लिए उस अशुद्ध जल को नहीं पी रहे थे, बल्कि अपनी आत्मा और शरीर को शुद्ध करने के लिए पी रहे थे.”

वास्तव में यह समग्र भारत था

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू कुंभ को देख चकित थे. उन्होंने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा, “वास्तव में यह समग्र भारत था, कैसा आश्चर्यजनक विश्वास जो हजारों वर्ष से इनके पूर्वजों को देश के कोने-कोने से खींच लाता है.” 1954 के महाकुंभ में वीआईपी अस्थियों का मेला लगा था. इस दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति डा राजेंद्र प्रसाद, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत कुंभ पहुंचे थे.

कुंभ मेला हिन्दू आस्था का संभवत: सबसे बड़ा उत्सव है. जहां हिन्दुत्व की सभी धाराएं संगम में आकर एकाकार हो जाती हैं. भारत में सालों से पत्रकारिता से जुड़े रहे मार्क टुली ने कुंभ की भव्यता और दिव्यता का वर्णन किया है.

यहां कोई उन्माद नहीं है, सिर्फ श्रद्धा की शांत निश्चितता है

मार्क टुली लिखते हैं, “भारत में मुझे सालों बीत चुके हैं, इस दौरान मैंने कई भव्य नजारे देखे लेकिन महाकुंभ जैसी भव्यता और उत्कृष्टता मुझे कहीं नहीं दिखी. मैं दो बार कुंभ गया. मैंने भारी भीड़ को इकट्ठा होते देखा, लेकिन असंख्य लोगों की जो भीड़ मैंने इलाहाबाद के कुंभ के दौरान देखी, वह कहीं नहीं दिखी.”

मार्क टुली ने वर्ष 1989 कुंभ अनुभवों पर लिखा है, “मैंने आज तक इतनी शांत भीड़-भाड़ में नहीं रहा. यहां कोई उन्माद नहीं है, सिर्फ श्रद्धा की शांत निश्चितता है.”

नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया में झांकने की कोशिश करते हुए टुली ने लिखा है, “महाकुंभ का सबसे अभूतपूर्व नजारा होता है भीड़ के बीच में नग्न साधुओं को नगाड़ों की ताल पर नाचते देखना. ये साधु हवा में उछलते नदी की ओर स्नान करने के लिए बढ़ते हैं.”

भारत के बदलावों को वर्षों तक कलमबद्ध करने वाले मार्क टुली कहते हैं कि कुंभ के दौरान कुछ संत साधु उपदेश देते भी नजर आते हैं. जो हिन्दू परंपराओं की सहिष्णुता को भी प्रदर्शित करता है. लेकिन टुली ने बीबीसी हिंदी में लिखा है कि कुछ बातों में मुझे रूढ़िवादिता नजर आई मगर कुछ बातों में काफी गहराई थी.

कुंभ में ही मार्क टुली की मुलाकात निर्गुण धारा के संत कबीर के भक्तों से होती है. यहां मार्क टुली को विश्वास का एक अलग रूप दिखता है, वो बीबीसी में लिखते हैं, “कबीर के भक्तों ने मुझे बताया कि वो देवताओं की तस्वीरों की भर्त्सना करते हैं. उनके मुताबिक गंगा में और नल के पानी से नहाने में कोई फर्क नहीं है. लेकिन किसी ने भी उनकी बातों का विरोध नहीं किया. इसका कारण शायद ये है कि हिंदू धर्म विविधताओं से भरा है.”

दरअसल कबीर दास कुंभ को मानव शरीर का का रूपक मानते हैं. वे लिखते हैं,

“जल में कुम्‍भ, कुम्‍भ में जल है, बाहर भीतर पानी,
फूटा कुम्‍भ जल जलहीं समाना,यह तथ कथौ गियानी”

इसका अर्थ यह है कि अगर हम अपने शरीर को एक घड़ा मान लें, तो हमारी इन्द्रियां, मन एवं अहंकार उसकी मोटी दीवारें हैं. जिस क्षण किसी भी कारण से घड़े की दीवार टूट जाती है, उसी समय मनुष्य की आत्मा परम तत्व में विलीन हो जाती है.

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