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जनादेश 2024: यूपी बना गेमचेंजर, क्यों हारी बीजेपी?

बीजेपी को लगातार दो बार सत्ता की बुलंदी तक पहुंचाने वाला उत्तर प्रदेश एक बार फिर से गेमचेंजर साबित हुआ है. बीजेपी की सियासी रणनीति यूपी के जमीन पर पूरी तरफ से फ्लॉप रही. 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को सबसे बड़ा झटका उत्तर प्रदेश में लगा है. सपा-कांग्रेस के गठबंधन ने बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के विजय रथ को सूबे की कुल 80 सीटों में आधे से भी कम सीटों पर रोक दिया. क्लीन स्वीप यानि सभी 80 सीटें जीतने का दावा करने वाली बीजेपी 33 सीटों पर सिमट गई. इसके चलते ही बीजेपी अपने दम पर पूर्ण बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल नहीं कर सकी. ऐसे में सवाल उठता है कि 2014 और 2019 में पीएम मोदी को सत्ता तक पहुंचाने वाले यूपी में बीजेपी इस बार कैसे हार गई?

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यूपी में बीजेपी इस बार अपने गठबंधन के दायरे बढ़ाकर चुनावी मैदान में उतरी थी. अनुप्रिया पटेल की अपना दल (एस) और संजय निषाद की निषाद पार्टी जैसे पुराने पार्टनर को साथ में रखते हुए बीजेपी ने जयंत चौधरी की आरएलडी और ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा जैसे नए साथी जोड़कर चुनावी मैदान में उतरी थी. वहीं, सपा-कांग्रेस ने आपस में हाथ मिलाकर चुनावी किस्मत आजमाया. यूपी की 80 सीटों में से बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए को 36 सीटें मिली हैं तो सपा-कांग्रेस गठबंधन 43 सीटें जीतने में सफल रही. बसपा को अकेले चुनाव लड़ना महंगा पड़ा और उसका खाता नहीं खुल सका. बीजेपी को सबसे बड़ा झटका पूर्वांचल इलाके में लगा है.

सोशल इंजीनियरिंग से बिगड़ा गेम

उत्तर प्रदेश में बीजेपी दस साल पहले अपने सियासी वनवास को खत्म करने के लिए अपने सवर्ण वोटबैंक को साधे रखते गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों को जोड़कर नई सोशल इंजीनियरिंग बनाई थी. इसके सहारे बीजेपी यूपी में अपना एकछत्र राज कायम कर लिया था, लेकिन इस बार बीजेपी का सियासी समीकरण बिगाड़ गया है. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने इस बार पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) फॉर्मूला के तहत सियासी बिसात बिछाया ही नहीं बल्कि उम्मीदवार भी उतारे हैं. इसके अलावा संविधान और आरक्षण के मुद्दे को जिस तरह विपक्ष ने उठाया, उसके चलते बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग बिखर गई. गैर-यादव ओबीसी में खासकर मल्लाह, कुर्मी और मौर्य-कुशवाहा जैसी जातियां बीजेपी से छिटकर सपा और कांग्रेस के साथ चली गईं. इतना ही नहीं संविधान के नाम दलित समाज का झुकाव भी सपा-कांग्रेस के पक्ष में रहा. इसके चलते बीजेपी के लिए यूपी में सियासी मात खानी पड़ गई.

सांसदों को रिपीट करने का दांव महंगा पड़ा

बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में अपने 62 मौजूदा सांसदों में से 48 सांसदों को 2024 के चुनावी मैदान में उतारा था. इतना ही नहीं सूबे के सभी केंद्रीय मंत्री को भी चुनाव रण में उतारने का दांव चला था. बीजेपी 26 मौजूदा सांसद चुनाव हार गए हैं, जो पार्टी के लिए बड़ा संदेश माना जा रहा है. सांसदों के खिलाफ उनके क्षेत्र में एंटी इनकंबेंसी. बीजेपी नेतृत्व भाप नहीं सका और उन्हें चुनावी मैदान में उतारने का दांव महंगा पड़ा. ऐसे में माना जाता है कि बीजेपी के रणनीतिकारों ने सांसदों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर जनता के बीच उभरे असंतोष को समझे बैगर मैदान में उतरने की वजह से सात केंद्रीय मंत्रियों समेत कुल 26 मौजूदा सांसदों को सीट गंवानी पड़ी है.

इसके अलावा माना जा रहा है कि यूपी में बीजेपी की बिगड़ी चाल के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार पार्टी के ही बड़े नेताओं का अति आत्मविश्वास है और जिस तरह से स्थानीय और पार्टी के काडर कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए टिकट का बंटवारा किया गया उससे बीजेपी को बड़ा नुकसान हुआ. नतीजा यह हुआ कि भाजपा ने जिन 17 सांसदों का टिकट काटकर उनके स्थान पर नए चेहरे उतारे थे, उनमें से पांच उम्मीदवार हार गए. इस तरह यूपी में बीजेपी को सियासी खामियाजा भुगतना पड़ा है.

मोदी-योगी के भरोसे पर चुनाव लड़ना

बीजेपी नेताओं को इस भरोसे रहना कि सिर्फ पीएम मोदी और सीएम योगी उनकी चुनावी नैया पार लगा देंगे. इस चक्कर में क्षेत्र और जनता से दूर रहना राजनीतिक रूप से महंगा पड़ा. पीएम मोदी और योगी ने यूपी में काफी मशक्कत की, लेकिन हर सीट पर प्रचार के लिए नहीं पहुंच सके. इस तरह पीएम मोदी के नाम पर जनता ने दोबारा वोट दिया, लेकिन जिन सांसद और नेताओं ने जनता से दूरी बनाए रखा था. उनके लिए चुनावी मैदान में पीएम मोदी और सीएम का नाम काम नहीं आ सका. बीजेपी ने यूपी में खराब छवि वाले कई सांसदों का टिकट काटने से परहेज किया और कई सीटों पर विरोधी लहर को भी नजरंदाज किया. इससे कार्यकर्ता हतोत्साहित हुए. विपक्ष के द्वारा यह आरोप लगाना कि अधिक सीटें जीतने पर यूपी से योगी को हटाया जा सकता है इस नरेटिव से भी असर पड़ा. खासकर ठाकुर खुलकर बीजेपी का विरोध करते नजर आए.

राशन और कानून व्यवस्था पर निर्भरता

उत्तर प्रदेश की 80 सीटों को जीतने के लिए बीजेपी ने कई नए प्रयोग किए थे, लेकिन चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि उनके सभी प्रयोग फेल साबित हुए हैं. सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों से संपर्क अभियान भी बेअसर रहा. टिफिन बैठक, विकसित भारत संकल्प यात्रा, मोदी का पत्र वितरण जैसे कई प्रमुख अभियान और सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों को साधने की कोशिश भी नाकाम साबित हुई है. फ्री राशन वितरण और कानून व्यवस्था के मुद्दे पर बहुत ज्यादा निर्भर रहना है कि इन दोनों एजेंडे से चुनावी नैया पार हो जाएगी, वो महंगा पड़ा.

दो लड़कों की जोड़ी ने बिगाड़ा बीजेपी का खेल

उत्तर प्रदेश में दो लड़कों की जोड़ी हिट रही है. अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने संविधान और आरक्षण के मुद्दे को जबरदस्त तरीके से उठाया. बीजेपी इसका ठीक से बचाव नहीं कर पाई. इससे प्रभावित होने वाले पिछड़े व दलित वर्ग के युवाओं को समझाने में विफल रही. सपा व कांग्रेस ने आम लोगों को सीधे प्रभावित करने वाले मुद्दों में बेरोजगारी व महंगाई के साथ संविधान व आरक्षण को प्रमुखता से उठाया.

इससे पार्टी को पिछड़ों व दलितों में सेंध लगाने में सफलता मिली. पेपर लीक की समस्या से युवा और छुट्टा जानवरों की समस्याओं से किसान सीधे प्रभावित थे. इंडिया गठबंधन ने इन मुद्दों को उठाकर काफी हद तक समर्थन हासिल करने में कामयाब रही. इसके अलावा सपा ने अपने मुस्लिम और यादव कोर वोट बैंक की जगह बीजेपी समर्थक मानी जानी वाली पिछड़ी व दलित जातियों को टिकट में प्राथमिकता दी. सपा ने सामान्य सीटों पर दलित समुदाय से प्रत्याशी भी उतारा. इससे सपा का कोर वोटर तो साथ रहा ही, टिकट पाने वाले प्रत्याशियों की जातियों ने भी जुटकर साथ दिया.

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