इंदौर। जैन समाज के वैवाहिक मामले हिंदू विवाह अधिनियम के तहत ही सुने और निराकृत किए जाएंगे। कुटुंब न्यायालय के अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश ने यह निष्कर्ष निकालकर कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के प्रविधान जैन समुदाय पर लागू नहीं होते हैं, गंभीर त्रुटि की है। वर्ष 2014 में जैन समुदाय को भले ही अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया गया, लेकिन उन्हें किसी भी मौजूदा कानून के तहत आवेदन करने के अधिकार से वंचित नहीं किया गया है।
कुटुंब न्यायालय को लग रहा था कि जैन समुदाय के मामले हिंदू विवाह अधिनियम के तहत निराकृत नहीं किए जा सकते हैं, तो कुटुंब न्यायालय को मामले को उच्च न्यायालय को रेफर कर देना था, लेकिन ऐसा नहीं किया। इस टिप्पणी के साथ मप्र उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ ने कुटुंब न्यायालय के आठ फरवरी 2025 के निर्णय को निरस्त कर दिया। कुटुंब न्यायालय ने इस निर्णय में जैन दंपती (नीतेश-शिखा) द्वारा विवाह-विच्छेद के लिए प्रस्तुत याचिकाओं को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि केंद्र सरकार द्वारा जैन समाज को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित किया गया है। 27 जनवरी 2014 को इस बारे में राजपत्र भी जारी हो चुका है। ऐसी स्थिति में जैन समाज के अनुयायियों को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत अनुतोष प्राप्त करने का अधिकार नहीं है।
वे हिंदू धर्म की मूलभूत वैदिक मान्यताओं को अस्वीकार करने वाले हैं और स्वयं को बहुसंख्यक हिंदू समुदाय से अलग कर चुके हैं।
उनसे जुड़े वैवाहिक मामलों का निराकरण हिंदू विवाह अधिनियम के तहत नहीं किया जा सकता।
कुटुंब न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए नीतेश सेठी ने अभिभाषक पंकज खंडेलवाल के माध्यम से उच्च न्यायालय में अपील की थी।
अभिभाषक खंडेलवाल ने उच्च न्यायालय में तर्क रखा कि संविधान में हिंदू की परिभाषा में जैन भी शामिल हैं।
हिंदू उत्तराधिकारी अधिनियम में भी हिंदू की परिभाषा में जैन धर्मावलंबियों को शामिल किया गया है।
अल्पसंख्यकों में बुद्ध, जैन, सिख शामिल हैं और इन सभी के वैवाहिक विवाद हिंदू विवाह अधिनियम के तहत निराकृत होते रहे हैं।