अयोध्या : रामनगरी अयोध्या, जो सनातन संस्कृति, धर्म और आस्था की जीवंत धरोहर है, अब ‘अयोध्या’ नहीं बल्कि ‘अयोध्याजी’ कहलाए—ऐसी मांग को लेकर संत समाज मुखर हो गया है. बिहार की पवित्र नगरी ‘गया’ की तर्ज पर अब अयोध्या के साथ भी ‘जी’ जोड़कर उसका सम्मान बढ़ाए जाने की मुहिम तेज हो गई है.
रामानंद संप्रदाय, निष्काम सेवा ट्रस्ट, मणिरामदास जी की छावनी और तुलसी छावनी सहित कई प्रमुख संत संस्थाएं इस मांग को लेकर एकजुट हैं और शासन से औपचारिक आदेश जारी करने की मांग कर रही हैं.
‘अयोध्याजी’ शब्द पहले से लोक जीवन में प्रचलित
रामानंद संप्रदाय के मुख्य आचार्य जगद्गुरु स्वामी रामदिनेशाचार्य का मानना है कि अयोध्या के साथ सम्मानसूचक ‘जी’ जोड़ने की परंपरा पहले से ही आम जनमानस में व्याप्त है. उन्होंने कहा, “गया की तरह अब अयोध्या के लिए भी यह सम्मान शासनादेश से अनिवार्य किया जाना चाहिए.
यह रामनगरी की गरिमा के अनुकूल है.” उन्होंने यह भी जोड़ा कि अयोध्या जैसे पवित्र स्थान को शासन की ओर से मिले हुए इस छोटे से लेकिन महत्वपूर्ण सम्मान से देशभर के श्रद्धालुओं को आत्मसंतोष और सांस्कृतिक गौरव का अनुभव होगा.
संत समाज ने कहा—अयोध्या है मोक्षदायिनी, सम्मान में नहीं हो देर
जगद्गुरु अर्जुनद्वाराचार्य कृपालु रामभूषणदेवाचार्य ने गया जी के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए कहा कि “गया को जो सम्मान मिला, वह स्वागत योग्य है.लेकिन अयोध्या तो मोक्षदायिनी पुरियों में अग्रणी है। उसे यह मान-सम्मान अब तक न मिलना विडंबना है.” उन्होंने शासन से अपील की कि अब और देर न हो और ‘अयोध्याजी’ के नाम को विधिवत घोषित किया जाए.
राम मंदिर निर्माण से मिली नई पहचान, अब चाहिए नया संबोधन
निष्काम सेवा ट्रस्ट के व्यवस्थापक महंत रामचंद्रदास ने कहा कि राम मंदिर निर्माण के बाद अयोध्या का धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व वैश्विक स्तर पर पुनर्स्थापित हुआ है.ऐसे में अब अयोध्या के साथ ‘जी’ जोड़कर इसे आधिकारिक रूप देना, उसकी गौरवशाली परंपरा को पूर्णता देने जैसा होगा.“शास्त्रों में अति प्रतिष्ठित इस भूमि के लिए अब यह सम्मान अनिवार्य होना चाहिए,” उन्होंने दो टूक कहा.
यह सम्मान सिर्फ नाम नहीं, बल्कि आस्था की अभिव्यक्ति है
कथाव्यास और मणिरामदास जी की छावनी के ट्रस्ट सदस्य आचार्य राधेश्याम का मानना है कि यह मांग सिर्फ औपचारिकता नहीं, बल्कि आस्था, परंपरा और कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है। “अयोध्या अपने आप में एक भाव है, एक दर्शन है.यह स्थान किसी भी प्रशासनिक सम्मान से कहीं ऊपर है, लेकिन वर्तमान पीढ़ी और शासन का यह नैतिक दायित्व है कि वह अयोध्या को सर्वोच्च सम्मान प्रदान करे,” उन्होंने कहा.
‘अयोध्याजी’—केवल शब्द नहीं, यह नैतिकता और कर्तव्य का प्रतीक
तुलसी छावनी पीठाधीश्वर महंत जनार्दनदास ने भी इस मांग का समर्थन करते हुए कहा, “यह मुद्दा केवल शब्द बदलने का नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति और कृतज्ञता के भाव का प्रतीक है.अयोध्या ने हमें श्रीराम जैसा रत्न दिया है, उसके सम्मान के लिए कुछ भी किया जाए तो वह कम है।” उन्होंने यह भी कहा कि शासन को चाहिए कि वह इस दिशा में शीघ्र कदम उठाए.
वैकुंठ जैसी भूमि, जिसे मिले सर्वोच्च संबोधन
वशिष्ठ भवन के महंत डॉ. राघवेशदास ने अयोध्या को भगवान विष्णु के लोक वैकुंठ का प्रतिनिधित्व करने वाली भूमि बताते हुए कहा कि “जब स्वयं परात्पर ब्रह्म इस भूमि पर अवतरित हुए और इसे स्वर्ग से भी श्रेष्ठ बना दिया, तो अयोध्या के लिए सर्वोच्च सम्मान की अपेक्षा स्वाभाविक है। ‘अयोध्याजी’ नाम न केवल एक औपचारिक बदलाव होगा, बल्कि हमारी भावनाओं और परंपराओं का गौरवशाली विस्तार भी होगा.”
राजनीति से परे, यह सांस्कृतिक सम्मान का विषय
संतों का यह भी मानना है कि यह मांग किसी राजनीतिक स्वार्थ या प्रतिस्पर्धा का हिस्सा नहीं है.यह एक ऐसी पहल है जो भारतीय जनमानस, संस्कृति और अध्यात्म की भावना से जुड़ी हुई है। ‘अयोध्याजी’ नाम केवल प्रशासनिक फाइलों में दर्ज होने वाला शब्द नहीं होगा, बल्कि यह हर भारतवासी के श्रद्धा-स्पंदन को आवाज देगा.
क्या होगा अगला कदम?
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र शासन इस मांग पर कितना संवेदनशील रुख अपनाते हैं। क्या अयोध्या को ‘अयोध्याजी’ कहने का शासनादेश जल्द आएगा? या फिर यह मांग केवल मंदिरों और संत समाज की सीमित दीवारों में गूंजती रहेगी? जो भी हो, यह स्पष्ट है कि संत समाज अब इस मांग को लेकर पीछे हटने वाला नहीं है.
‘अयोध्या’ से ‘अयोध्याजी’ बनने की यह मांग केवल एक शब्द जोड़ने की नहीं, बल्कि उस भावना को संस्थागत रूप देने की है जो भारत के हृदय में सदा से बसती आई है.अब बारी शासन की है कि वह इस भावनात्मक और सांस्कृतिक आग्रह को कब औपचारिक रूप देता है.