पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर इन दिनों भारत के खिलाफ तीखे बयान देकर सुर्खियां बटोरने की कोशिश कर रहे हैं. हाल ही में ओवरसीज पाकिस्तानियों के एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि कश्मीर इस्लामाबाद की गले की नस था और रहेगा. साथ ही बलूचिस्तान को लेकर भी उन्होंने कहा कि कोई भी अलगाववादी ताकत पाकिस्तान की क्षेत्रीय अखंडता को चुनौती नहीं दे सकती. लेकिन जब वो भारत पर ज्ञान बांट रहे थे, तभी पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने उन्हीं के देश में सैन्य अदालतों की वैधता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए.
पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने सैन्य अदालतों में आम नागरिकों के ट्रायल को लेकर दायर याचिकाओं की सुनवाई के दौरान बेहद तीखी टिप्पणियां कीं. जस्टिस जमाल मंदोखेल ने रक्षा मंत्रालय के वकील ख्वाजा हारिस से सीधे पूछा ‘क्या सैन्य अदालतों को वाकई अदालत कहा जा सकता है?’ जस्टिस मंदोखेल ने साफ कहा कि पाकिस्तान के संविधान का अनुच्छेद 175 ही अदालतों को परिभाषित करता है और अगर सैन्य अदालतें इस दायरे में नहीं आतीं, तो उन्हें ‘अदालत’ कैसे माना जा सकता है?
सेना की शक्ति पर चला कोर्ट का हंटर
ख्वाजा हारिस ने बचाव में दलील दी कि लियाकत हुसैन केस में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि नागरिकों पर कोर्ट मार्शल किया जा सकता है और यह प्रक्रिया कानून के तहत होती है. उन्होंने दावा किया कि सैन्य अदालतें निष्पक्ष सुनवाई करती हैं और उनके जज न्याय की शपथ लेते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान की 1956 और 1962 की संविधान व्यवस्था में भी ऐसी अदालतों की वैधता मौजूद थी, जब अनुच्छेद 175 अस्तित्व में ही नहीं था.
सैन्य अदालतों की निष्पक्षता पर उठे सवाल
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जजों ने हारिस की दलीलों से असंतोष जताया. जस्टिस मुसर्रत हिलाली ने यहां तक कह दिया कि यदि मुद्दा उनके सवालों से है, तो वे अपने सवाल वापस ले लेंगी. जस्टिस मंदोखेल ने सरकार की ओर से पेश हो रहे एटॉर्नी जनरल की गैर-मौजूदगी पर नाराजगी जताते हुए कहा कि ये कैसा मजाक है? क्या सरकार इस मामले को टालना चाहती है? वहीं, जस्टिस अमीनुद्दीन ने निर्देश दिया कि शुक्रवार को सुनवाई के बाद अगली सुनवाई 28 तारीख को होगी, क्योंकि उस बीच पीठ उपलब्ध नहीं होगी.
साफ है कि जब जनरल मुनीर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को लेकर भ्रामक बयान दे रहे हैं, तब उनके ही देश की सर्वोच्च अदालत सेना और सरकार की भूमिका पर कठोर सवाल खड़े कर रही है. इससे पाकिस्तान की लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संस्थागत जवाबदेही की कमजोर स्थिति एक बार फिर उजागर हो गई है.