कहते हैं इंसान का दिमाग ही उसे दूसरे जीव-जंतुओं से अलग बनाता है, इंसान की सोचने-समझने की खूबी ही उसे असल में इंसान बनाती है. लेकिन क्या आपको पता है कि अधिक तनाव और वर्क प्रेशर के कारण हमारा दिमाग भी डैमेज होने लगता है?
दरअसल हम जो कुछ भी करते हैं, हम जो कुछ भी हैं, वो हमारे दिमाग में बनने वाली कोशिकाओं, सिनैप्स के बीच संबंधों पर आधारित है. पहले माना जाता था कि एक वयस्क इंसान का दिमाग आम तौर पर ‘स्थिर’ होता है, लेकिन वैज्ञानिकों की नई रिसर्च से पता चला है कि दिमाग लचीला और परिवर्तनशील होता है.
खुद को खाता है हमारा दिमाग!
यानी हमारा दिमाग भी धीरे-धीरे खर्च होता है. वो डायलॉग है ‘न दिमाग मत खा ना यार’…लेकिन ये महज डायलॉग नहीं बल्कि हकीकत है. और हमारे दिमाग को खाने वाला कोई और नहीं बल्कि खुद वही है. यानी हमारा दिमाग खुद ही अपने हिस्सों को खाता है. इस प्रक्रिया को फोगोसाइटोसिस कहते हैं.
फेगोसाइटोसिस एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत कोशिकाएं छोटी कोशिकाओं या अणुओं को घेर लेती हैं और उन्हें सिस्टम से बाहर निकालने के लिए उन्हें खत्म करती हैं. यानी ये कहना गलत नहीं होगा कि छोटी कोशिकाएं, बड़ी कोशिकाओं का खाना बन जाती हैं. हमारा इम्यून सिस्टम भी इसी पर आधारित है, जिसमें व्हाइट ब्लड सेल्स (श्वेत रक्त कोशिकाएं) पैथोजन्स (जिससे बीमारियां हो सकती हैं) को खाती हैं, इस तरह उनसे हमारे शरीर को होने वाले किसी तरह के बुरे प्रभाव से छुटकारा मिलता है.
सेलुलर पावरहाउस जैसा है हमारा दिमाग
दिमाग में होने वाली फेगोसाइटोसिस प्रक्रिया का मकसद दिमाग की प्रोडक्टिविटी को बनाए रखना है, यानी हमारा दिमाग काम करता रहे, इसे होमियोस्टेसिस कहते हैं. दिमाग हमारे शरीर का सबसे अहम अंग है और लगातार 24 घंटे काम करता रहता है. एक अनुमान के मुताबिक यह शरीर की ऊर्जा आपूर्ति का लगभग एक तिहाई हिस्सा, जीवित रहने और जरूरी कामों को करने में खर्च कर देता है. इसका मतलब है कि हमारा दिमाग एक सेलुलर पावरहाउस की तरह है.
सोते समय होती है फेगोसाइटोसिस प्रक्रिया
हमारे दिमाग की कोशिकाओं के बीच और अंदर हर समय अनगिनत जटिल प्रक्रियाएं होती रहती हैं, इस प्रक्रिया के दौरान बहुत सारा मलबा बनता है. जिस तरह हम घर की सफाई करते हुए या खाना बनाते हुए कुछ कचरा घर से बाहर फेंकते हैं उसी तरह दिमाग भी इस मलबे से छुटकारा पाने के लिए फेगोसाइटोसिस की प्रक्रिया का इस्तेमाल करता है. ये जानकर आपको हैरानी होगी कि इस सेलुलर मलबे को हटाने का सबसे बड़ा काम तब होता है जब हम सो रहे होते हैं और फेगोसाइटोसिस के जरिए दिमाग इसे साफ कर देता है.
दिमाग का खाना इसे बेहतर बनाता है
लेकिन यह रोजाना की सामान्य प्रक्रिया नहीं है, कई बार दिमाग से बहुत सी चीजें हटाने या उसे बदलने की जरूरत होती है. ऐसे में हमारा दिमाग ‘छंटाई’ का काम भी शुरू कर देता है, यह खास तौर पर तब होता है जब हम किशोरावस्था में पहुंचते हैं. इससे बचपन के दौरान जमा किए गए सभी गैर-जरूरी न्यूरोलॉजिकल कनेक्शन से छुटकारा पाया जाता है. और वे संसाधन जो वे बेकार में इस्तेमाल कर रहे थे, उन्हें अधिक उपयोगी चीजों में बदल दिया जाता है. इस प्रक्रिया से हमारा दिमाग अधिक कुशल और वयस्क जीवन के लिए तैयार हो जाता है. और यह सब इसलिए संभव होता है क्योंकि हमारा दिमाग वास्तव में खुद को खा रहा है, लेकिन ऐसे तरीकों से जो इसे बेहतर बनाते हैं, खराब नहीं.