शैलेंद्र ने लिखा था- न हाथी है न घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है… तो नीरज ने लिखा- काल का पहिया घूमै है भइया; शैलेंद्र ने लिखा कि चिट्ठिया हो तो हर कोई बांचे… तो नीरज ने लिखा- लिखे जो खत तुझे… जो तेरी याद में; शैलेंद्र के गीत हैं- आवारा हूं… या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं… तो नीरज के बोल हैं- कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे… ये कुछ नजीर भर हैं जहां शैलेंद्र और नीरज के गीतों की भाव भूमि मिलती जुलती है. जिस तरह शैलेंद्र कम से कम उर्दू शब्दों का इस्तेमाल करते हुए खालिस हिंदी जुबान में सीधी सी बात न मिर्च मसाला लिखकर दिल छूने वाली बड़ी से बड़ी बातें कह जाते हैं, उसी तरह आसान बोलचाल में नीरज भी अपने गीतों में जिंदगी का फलसफा पिरो देते हैं. यही वजह है कि राज कपूर और देव आनंद जैसे दिग्गज फिल्मकारों के लिए जिस प्रकार शैलेंद्र पसंदीदा गीतकार रहे, उसी तरह गोपालदास नीरज भी जिन्होंने यह भी लिखा- आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं…
गीतकार शैलेंद्र तीसरी कसम बनाने के बाद जब सन् 1966 में गुजर गए तो उसके बाद हिंदी के जिस कवि, गीतकार के शब्दों की ओर फिल्म इंडस्ट्री के महान संगीतकारों और फिल्मकारों ने हरसत भरी निगाह डाली, वो थे- गोपाल दास नीरज. जिनकी रचनाओं में भी आम बोलचाल में लोकोक्तियों की साहित्यिक बिसात वैसी ही थी, जो शैलेंद्र की विरासत थी. नीरज जी ने अपने साथ इंटरव्यू में खुद बताया था कि राज कपूर उनके गीतों में शैलेंद्र की दार्शनिकता महसूस करते थे तो देव आनंद एक कवि सम्मेलन में उनको सुनकर वाह वाह कर उठे, आगे बढ़कर हाथ मिलाया और कहा- आई लाइक योर ब्यूटीफुल लेंग्वेज. फिल्मों के लिए गीत लिखोगे? नीरज के लिए ये तारीफें गर्दिश और गुरबत से निकलने का आगाज साबित हुईं.
महज 6 साल में लिखे 120 गाने
गौरतलब है कि शैलेंद्र ने सिनेमा की दुनिया को तकरीबन सत्रह साल दिए थे जबकि नीरज ने फिल्मों में लेखन के लिए महज छह सक्रिय साल बिताए. इतने कम समय में ही उन्होंने कुल 120 गाने लिखे जो सदा के लिए कर्णप्रिय और लोकप्रिय हैं. शैलेंद्र के गीत युगातीत हैं, वे सूक्तियां बन चुके हैं तो नीरज के गाने भी कालजयी हैं, जन-जन की जुबान पर अमर हैं. उनका गीत कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे… ने धूम मचा दी थी. फिल्म का नाम था- नई उमर की नई फसल. सन् 1966 में रिलीज उस फिल्म में संगीत रोशन ने दिया था. नीरज ने यह गीत इस फिल्म के लिए नहीं लिखा था बल्कि पहले ही रेडियो और कवि सम्मेलनों में सुनाया करते थे, जिसे इस फिल्म में शामिल कर लिया गया. जिसके बाद इसकी लोकप्रियता हर सीमा पार कर गई.
कहते हैं मोहम्मद रफी की आवाज में गाया गया नीरज का वह गीत तब के स्वप्नशील युवाओं के दिल की धड़कन बन गया. यह हर किसी की जुबान पर चस्पां था. आजाद भारत में शैलेंद्र का लिखा गाना आवारा हूं… के बाद नीरज का यह गीत सबसे ज्यादा लोगों ने पसंद किया. वह जुनून बन गया. इन पंक्तियों को सुन लोग दीवाने हो उठे– लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से… और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे… या फिर पालकी लिये हुये कहार देखते रहे… कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे… इस गीत की व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया था- यहां निराशा का पूर्णविराम नहीं है, निष्क्रियता के नतीजे के प्रति आगाह भी है.
जब देव आनंद नीरज को सुन कर झूम उठे
यह बात करीब सन् 1960-62 की है. मुंबई में एक सरकारी कार्यक्रम आयोजित किया गया था. देव आनंद भी वहां आए थे. नीरज ने मंच से कविताएं सुनाईं. अपने गीत गाये. इसी दौरान नीरज की देवानंद से मुलाकात हुई. देव आनंद ने अंग्रेजी में कहा- आई लाइक योर ब्यूटीफुल लेंग्वेज. वी विल वर्क टुगेदर समडे. नीरज जी ने अपने इंटरव्यू में बताया था कि देव आनंद को उनके गीतों में हिंदी शब्दों का प्रयोग और फिलॉस्फी बहुत पसंद आई. फिल्म इंडस्ट्री में तब अकेले शैलेंद्र ही थे, जो अपने गीतों में बोलचाल की हिंदी शब्दों का प्रयोग करके लोकप्रियता हासिल की थी वरना ज्यादातर गीत उर्दू अल्फाज से लबरेज होते थे.
इसके कुछ साल बाद वो ऐतिहासिक समय आया. देव आनंद अपनी अगली फिल्म बना रहे थे. उन्होंने नीरज जी को आमंत्रण भेजा. तब नीरज अलीगढ़ आ गए थे. देव आनंद की चिट्ठी पाकर फिर से मुंबई का रुख किया. संगीतकार एसडी बर्मन से मुलाकात करवाई गई. देव आनंद के निर्देशन में प्रेम पुजारी फिल्म सन् 1970 में रिलीज हुई. उससे पहले गीतों की रिकॉर्डिंग की गई. फिल्म के सारे गाने अत्यंत लोकप्रिय हुए- रंगीला रे… तेरे रंग से यूं रंगा है मेरा मन… गीत पर वहीदा रहमान की प्रस्तुति ऐसी प्रतीत होती है मानो कृष्ण प्रेम में मीरा झूम रहीं हों.
नीरज ने इस फिल्म के माध्यम से फिल्म इंडस्ट्री में अपने गीतों की धाक जमा ली. शैलेंद्र के गुजरे करीब चार साल हो चुके थे, जिन संगीतकारों और फिल्मकारों को शैलेंद्र ने दीवाना बनाया था, वे धीरे धीरे नीरज की ओर मुखातिब होने लगे. प्रेम पुजारी शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब… फूलों के रंग से, दिल की कलम से… या फिर प्रेम के पुजारी हम हैं… जैसे गीतों के लिए फिल्म के इतिहास में अमर हो गई.
देव आनंद के बाद राज कपूर ने भी बुलाया
फिल्मों में राज कपूर और शैलेंद्र की जोड़ी की कहानी सिनेमा के जानकारों को बखूबी पता है. वही राज कपूर जब अपने ड्रीम प्रोजेक्ट मेरा नाम जोकर (1970) के लिए काम कर रहे थे तब उन्हें ऐसे गीतकार की तलाश थी, जो उनकी इस फिल्म की दार्शनिकता के मिजाज को छू सके. राजकपूर ने गोपालदास नीरज के कई गाने सुने थे और पसंद भी आए थे. शैलेंद्र के बिना राजकपूर के शब्द जैसे छिन गए थे. उन्हें लगा कि मेरा नाम जोकर में नीरज जी शैलेंद्र की तरह ही उनके मन की आवाज बन सकते हैं. उन्होंने नीरज से दो गीत लिखवाए-जिसे मुकेश ने गाया. एक गीत था- कहता है जोकर सारा जमाना… आधी हकीकत आधा फसाना… और दूसरा गीत था- ऐ भाई जरा देख के चलो… पहला गीत फिल्म का थीम सॉन्ग बन गया. लेकिन दूसरा गीत ऐ भाई जरा देखके चलो… सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ. दोनों ही गीत मेरा नाम जोकर की फिलॉस्फी को व्याख्यातित करते हैं. इन गीतों के बाद राज कपूर ने कहा था- मुझे मेरा शैलेंद्र मिल गया.
नीरज फिल्मों में गीत लिखने कैसे गए?
ऐसा माना जाता है कारवां गुजर गया… नीरज का पहला फिल्मी गीत था, लेकिन यह सच नहीं. वह पचास के दशक के अंत में ही मुंबई चले गए थे. मंच पर कविताएं सुनाया करते थे. तब के कवि सम्मेलनों में निराला, बच्चन, दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी, शिवमंगल सिंह सुमन और गोपाल सिंह नेपाली जैसे दिग्गज हिंदी कवियों की तरह उनकी शख्सियत और शब्दावली का भी अपना-सा प्रभाव था. उनकी साहित्य साधना सन् 1941 से हर दौर को पार करते हुए जीवन के आखिरी पड़ाव साल 2018 तक चली. यानी बतौर रचनाकार तकरीबन 77 साल तक गीत-गजल-कविता के प्रति समर्पित रहे.
पचास के दशक में ऑल इंडिया रेडियो पर भी गीत सुनाया करते थे. तब रेडियो पर काफी संख्या में लोग कविताएं और गीत सुना करते थे. उन्हीं में एक थे- फिल्म कलाकार चंद्रशेखर, जो कि नीरज जी के बड़े फैन थे. अभिनेता चंद्रशेखर ने बतौर डायरेक्टर साल 1964 में चा चा चा नाम से फिल्म बनाई. खुद हीरो बने और हेलन को मुख्य अभिनेत्री बनाया. इसी फिल्म में नीरज ने पहली बार गीत लिखा- सुबह ना आई… शाम ना आई… गीत लोकप्रिय हुआ किंतु यह संघर्ष की शुरुआत थी, अभी तो राज कपूर और देव आनंद से ऐतिहासिक मुलाकातें होनी बाकी थीं. तब चंद्रशेखर की तरह ही डायरेक्टर आर.चंद्रा भी रेडियो पर नीरज के गीतों और कविताओं को सुन चुके थे. जिन्होंने अपनी आगामी फिल्म नई उमर की नई फसल में कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे को शामिल किया.
मुंबई से क्यों लौटे, फिल्मों में लिखना भी छोड़ा
साल 2016 के फरवरी महीने में दिल्ली में उनसे हुई एक लंबी मुलाकात में जब मैंने यह सवाल पूछा तो वो भावुक हो गए थे. उन्होंने कहा सिनेमा से वाकई बहुत ही नजदीकी रिश्ता रहा लेकिन जब हमारे प्रिय संगीतकार दुनिया से चले गए तो मेरा भी मन वहां से उचट गया. एसडी बर्मन, रोशन जैसे संगीतकार सब गुजर गए तो मेरा दिल वहां नहीं लगा. मैं वापस अपनी दुनिया में चला आया. भई, सीधी सी बात है जो हमारे शब्दों के कद्रदान थे, वो ही जब नहीं रहे तो किसके लिए लिखता. कौन मेरे शब्दों की सराहना करता. लेकिन फख्र इस बात का है कि भले ही मैं सिनेमा की दुनिया में 5-6 साल रहा, लेकिन उस दौरान मैंने जो-जो लिखे, वे आज भी गाये जाते हैं. साहित्यिक रुझान वालों के लिए सिनेमा की दुनिया बहुत मुफीद जगह नहीं है.
हालांकि सचाई तो ये भी है कि मुंबई से लौटने के बाद भी नीरज का सिनेमा से रिश्ता बना रहा. देव आनंद ने उन्हें फिर याद किया. 1984 में हम नौजवान में गीत लिखवाया- तो 1990 में महेश भट्ट ने भी गुनाह और फरेब में गीत लिखवाए. उनका निधन 19 जुलाई 2018 को हुआ था.