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‘मृत्यु नहीं मुक्ति चाहता था रावण…’, आशुतोष राणा बोले- राम को ही नहीं राम की भी मानें

राजधानी दिल्ली के मंडी हाउस स्थित कमानी ऑडिटोरियम में बीते बुधवार को नाटक ‘हमारे राम’ का शानदार मंचन हुआ. इस मंचन में अभिनेता आशुतोष राणा ने रावण की भूमिका निभाई. तीन घंटे लंबे इस नाटक ने दर्शकों को भारतीय पौराणिक कथाओं के एक जटिल चरित्र रावण को नए दृष्टिकोण से समझने का अवसर दिया. रावण के किरदार को लेकर राणा की गहरी समझ और उनके भावपूर्ण प्रदर्शन ने दर्शकों को सम्मोहित कर दिया.

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आशुतोष राणा ने जीवंत किया रावण का किरदार
आशुतोष राणा ने नाटक में रावण का किरदार बेहद प्रभावशाली ढंग से निभाया है. उनकी संवाद अदायगी, उनकी भाव-भंगिमाएं और मंच पर उनकी उपस्थिति इतनी प्रबल थी कि दर्शक उनके साथ रावण के द्वंद्व, संघर्ष और अंतर्द्वंद्व को महसूस कर रहे थे. तीन घंटे के इस नाटक में आशुतोष राणा ने रावण के चरित्र की गहराईयों को कुशलता से उभारा, जिसमें एक ओर वह अत्यंत ज्ञानी, विद्वान और तपस्वी के रूप में दिखे, तो दूसरी ओर एक अहंकारी, क्रोधी और शक्ति के प्रतीक के तौर पर भी. उनका निभाया किरदार ऐसा था कि एक तरफ तो वह श्रीराम को ललकार रहा है, लेकिन दूसरी ओर अंदर ही अंदर इसी के जरिए वह अपने ज्ञान और पांडित्य के अहंकार से भी मुक्त होना चाह रहा है.

सिर्फ खलनायक नहीं, महान विद्वान भी था रावणः आशुतोष राणा
रावण के किरदार की जटिलता के बारे में आशुतोष राणा का कहना है, “रावण को हमेशा एक नकारात्मक चरित्र के रूप में देखा गया है, लेकिन उसके व्यक्तित्व में कई परतें हैं. वह सिर्फ एक खलनायक नहीं था, बल्कि वह एक महान विद्वान, शिव भक्त और तपस्वी था. उसकी नकारात्मकता उसके अहंकार और वासनाओं से आई, लेकिन उसके भीतर भी ज्ञान और सच्चाई की तलाश थी.”

नाटक के मंचन के बाद, आशुतोष राणा ने आजतक से बातचीत करते हुए रावण के चरित्र की गहराई और उसके प्रति अपने दृष्टिकोण पर खुलकर बात की. उन्होंने बताया, “रावण को सिर्फ नकारात्मक रूप में देखना उसकी महानता को कम आंकने जैसा है. रावण न केवल एक शक्तिशाली राजा था, बल्कि वह एक ज्ञानी और विद्वान भी था, जिसकी इच्छा आत्मज्ञान और मोक्ष से भी परे मुक्त होने की थी”

‘मुक्ति की खोज में था रावण’
राणा ने आगे कहा, “रावण का अंत केवल मृत्यु नहीं था, बल्कि वह आत्मज्ञान और मुक्ति की खोज में था. उसका अंत उसके अहंकार का अंत था, और यह उसकी आध्यात्मिक यात्रा का समापन था. इस दृष्टिकोण से, रावण एक आदर्श विरोधाभास है, जहां वह बुराई का प्रतीक होने के बावजूद अंततः ज्ञान और मुक्ति की ओर अग्रसर होता है.”

रावण के व्यक्तित्व की सकारात्मकता पर बात करते हुए राणा ने कहा कि रावण के भीतर एक विद्वान और महान व्यक्ति भी बसा हुआ था, जो उसके अहंकार के कारण धूमिल हो गया. “आज के समय में हर व्यक्ति के भीतर राम और रावण दोनों मौजूद हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि हम अपने भीतर के राम को कितना मानते हैं और उसकी शिक्षाओं को अपने जीवन में कितना अपनाते हैं? जब हम राम को न केवल मानेंगे, बल्कि उनकी शिक्षाओं का पालन भी करेंगे, तभी हमारे भीतर का नकारात्मक रावण मरेगा और सकारात्मक, ज्ञानी रावण का जन्म होगा.”

हमारे ही शरीर में विराजते हैं दशरथ और दशमुखः राणा
उन्होंने बातचीत में इसे उदाहरण सहित समझाने के लिए मनुष्य शरीर की तुलना, दशमुख और दशरथ से की. इसमें दशरथ को पांच ज्ञानेंद्रियों और पांच कर्मेंद्रियों का प्रतिनिधि बताया गया. वहीं रावण को ‘दशमुख’ के रूप में चित्रित किया गया, जो दस इंद्रियों और इच्छाओं का प्रतीक है. नाटक के अनुसार, रावण का दशमुख होने का अर्थ यह है कि वह मनुष्य की इंद्रियों और वासनाओं का प्रतिनिधित्व करता है. जब मनुष्य अपनी इंद्रियों और इच्छाओं पर नियंत्रण पा लेता है, तब वह राम, जो सत्य, धर्म और मर्यादा के प्रतीक हैं उन्हें अपने भीतर स्थान देता है और आत्म-विजय की ओर बढ़ता है.

राणा ने इस प्रतीकात्मकता को आधुनिक जीवन के संदर्भ में जोड़ते हुए कहा, “आज हर व्यक्ति के भीतर रावण और राम दोनों हैं. यह हमारे ऊपर है कि हम किसे प्राथमिकता देते हैं. जब हम अपने भीतर की इच्छाओं और वासनाओं को नियंत्रित करते हैं, तभी हम सच्चे राम के अनुयायी बनते हैं.”

‘जीवन में राम के आदर्शों को अपनाने की जरूरत’
रावण के किरदार के माध्यम से नाटक ने आज के समय में अच्छाई और बुराई के बीच के संघर्ष को दर्शाया. राणा ने इस संघर्ष को समझाते हुए कहा कि वर्तमान युग में भी हर व्यक्ति इस द्वंद्व से गुजर रहा है. वह अच्छाई और बुराई के बीच उलझ रहा है. उन्होंने कहा कि “हमारे जीवन में भी राम और रावण का संघर्ष है. यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपने भीतर के राम को जगह दें या रावण को. जब हम राम के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाएंगे, तभी हम सच्चे अर्थों में सफल होंगे.”

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