कबीरधाम में शाही दशहरा मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. इस ऐतिहासिक दशहरा की सांस्कृतिक पहचान है.करीब 265 साल पुरानी ये परंपरा रियासत काल (1751-1760) में राजा महाबली सिंह ने शुरु की थी. तब से अब तक यह परंपरा लगातार चली आ रही है, हर साल ये परंपरा कबीरधाम को विशेष पहचान दिलाती है.
पारंपरिक रस्मों की हुई शुरुआत : विजयादशमी के दिन राजमहल में पारंपरिक रस्में शुरू हुईं. राजा योगेश्वर राज सिंह और युवराज मैकेलेश्वर राज सिंह ने स्नान कर सबसे पहले कुलदेवी दंतेश्वरी मंदिर सहित खेड़ापति हनुमान, राधाकृष्ण और मां सतबहनिया मंदिर में पूजा-अर्चना की. इसके बाद शस्त्र पूजन और विशेष अनुष्ठान सम्पन्न हुए, दोपहर तक राजमहल में तैयारियां पूरी होने के बाद रानी कृतिदेवी सिंह परंपरागत तरीके से राजा और युवराज को तिलक लगाकर शाही सवारी के लिए विदा करेंगी.
शाही सवारी का नगर भ्रमण : शाम को रावण दहन के बाद राजा और युवराज शाही रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण करेंगे. शाही रथ के आगे-आगे श्रीराम, लक्ष्मण और हनुमान का रथ निकलेगा.भोजली तालाब और सरदार पटेल मैदान में आतिशबाजी के बीच रावण वध होगा. इसके बाद राजा मां शीतला मंदिर में पूजा कर ज्योति कलश का रामघाट में विसर्जन करेंगे.
इस शाही दशहरे की सबसे बड़ी विशेषता बैगा जनजाति की भागीदारी है. वे दूर-दराज के जंगलों से कई किलोमीटर की यात्रा कर केवल राजा के दर्शन के लिए यहां पहुंचते हैं. उनके लिए ये परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही आस्था का हिस्सा है. हर साल इस आयोजन में 40 से 50 हजार श्रद्धालु और विदेशी सैलानी शामिल होते हैं.इतिहासकारों के अनुसार पहले दशहरे की रात राजमहल में दरबार लगता था, जिसमें गौटिया राजा दशहरा टीका स्वरूप भेंट चढ़ाते थे और बदले में शमी पत्ता और बीड़ा पान पाते थे.