झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 से ठीक पहले रांची में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बैठक शुरू हो गई है. बताया तो यही गया है कि बैठक में संघ के शताब्दी समारोह की तैयारियों और कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों सहित संगठन के विस्तार पर चर्चा होनी है, लेकिन ये तो हाथी के दांत हैं. असल बात तो ये है कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मिले झटके से उबारने की रणनीति पर चर्चा होनी है. वैसे RSS के प्रचार प्रभारी सुनील आंबेकर का कहना है बैठक में हाल ही में हुए प्रशिक्षण कार्यक्रमों और विभिन्न शाखाओं से जुड़े काम पर संघ की बैठक में चर्चा होनी है.
संघ प्रमुख मोहन भागवत और दत्तात्रेय होसबले की निगरानी में तीन दिनों तक चलने वाली बैठक में, BJP अध्यक्ष जेपी नड्डा और महासचिव बीएल संतोष के भी शामिल होने की संभावना है.
संघ की ये बैठक रांची में ऐसे वक्त हो रही है, जब झारखंड के साथ साथ महाराष्ट्र और हरियाणा में जल्दी ही विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. झारखंड में तो BJP की कोशिश सत्ता में वापसी की है, लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा में सत्ता बरकरार रखने की चुनौती है – और लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद तो ये बीजेपी के लिए सारे ही विधानसभा चुनाव बेहद महत्वपूर्ण हो गये हैं.
ये लोकसभा चुनाव में BJP का घटिया प्रदर्शन ही है, जिसकी वजह से उसे केंद्र में गठबंधन की कमजोर सरकार चलानी पड़ रही है. निश्चित तौर पर नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बन गये हैं, लेकिन अपने बूते BJP को तो बहुमत भी नहीं मिल सका है.
लोकसभा चुनाव में BJP के अपने बूते बहुमत से चूक जाने की वजह संघ का एकदम से मुंह मोड़ लेना भी माना जा रहा है, क्योंकि BJP अध्यक्ष जेपी नड्डा का एक बयान संघ को बेहद नागवार गुजरा था. कहते हैं उसके बाद संघ अचानक तटस्थ होकर बैठ गया – और संघ के उदासीन हो जाने का नतीजा सबने देख ही लिया है.
बीजेपी को सबसे ज्यादा नुकसान यूपी में उठाना पड़ा जहां इंडिया गठबंधन ने पहले के चुनावों के मुकाबले करीब आधी सीटों पर समेट दिया. कहां मोदी-शाह की जोड़ी ‘अबकी बार 400 पार’ का नारा लगा रही थी, और कहां बहुमत से भी काफी पीछे रह जाना पड़ा.
असल में, बीजेपी के लिए चुनावों से पहले से ही संघ के प्रचारक जमीनी स्तर पर मुहिम शुरू कर देते हैं. संघ की सक्रियता 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों में भी देखी गई थी, और उसके पहले के 2019, 2017 और 2014 के चुनावों में भी लेकिन 2024 में पहले जैसे प्रबंधन का एक नमूना तक न दिखा. पूरे चुनाव में संघ अपने वैचारिक कार्यक्रमों और गतिविधियों तक ही सीमित रहा.
संघ नेतृत्व को जेपी नड्डा की जो बात बुरी लगी थी, वो बुरा लगना स्वाभाविक भी है. जेपी नड्डा का कहना था, ‘भाजपा अब पहले की तुलना में काफी मजबूत हो गई है… इसलिए अब संघ के समर्थन की जरूरत नहीं है.’
जाहिर है, जेपी नड्डा ने ये बातें मोदी की लोकप्रियता, राम मंदिर निर्माण और बीजेपी के पक्ष में नजर आ रहे माहौल से भरे आत्मविश्वास की बदौलत कही थी, लेकिन संघ को लगा ये कुछ और नहीं अहंकार बोल रहा है – और संघ अपने तरीके से बीजेपी नेतृत्व को नसीहत देना चाहता था.
एक रिपोर्ट के मुताबिक, बैठक में राज्यों में संघ के नेतृत्व में भी बदलाव पर चर्चा के साथी संघ के प्रचारकों को BJP में भेजा जा सकता है. ऐसा पहले भी होता रहा है, और BJP में डेप्युटेशन पूरा हो जाने के बाद वे नेता फिर से संघ के काम पर लौट जाते हैं. राम माधव ऐसे ही उदाहरण हैं. यानी अब राम माधव जैसे कई नेता फिर से BJP में देखने को मिल सकते हैं.
2024 में झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा की विधानसभाओं के साथ ही केंद्र शासित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर में भी चुनाव होने वाले हैं – और BJP के लिए सबसे ज्यादा मुश्किल महाराष्ट्र और झारखंड ही हैं.
झारखंड में हेमंत सोरेन की वापसी के बाद BJP की मुश्किल और भी बढ़ गई है. हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद से ही उनकी पत्नी कल्पना सोरेन झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेताओं के साथ सड़क पर उतर गई थीं, और लोगों को बार बार यही समझाने की कोशिश हुई कि कैसे BJP ने झारखंड के आदिवासी नेता को राजनीति साजिश के तहत जेल भेज दिया.
और JMM की तरफ से जो अलग जगाई गई, उस आग में घी का काम झारखंड हाई कोर्ट की टिप्पणी कर सकती है. हेमंत सोरेन को जमानत देते वक्त हाई कोर्ट की टिप्पणी के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री बड़े आराम से लोगों को समझा सकते हैं कि अदालत ने तो प्रथम दृष्टया ED के लगाये आपराधिक आरोपों में दोषी माना ही नहीं है.
मतलब, हेमंत सोरेन अपने वोटर को समझाएंगे कि कैसे बीजेपी की केंद्र सरकार ने बदले के भावना के साथ उनके खिलाफ केंद्रीय जांच एजेंसी का दुरुपयोग किया है – और ये बात अगर वोटर के दिमाग में जम गई तो BJP फिर से सत्ता से दूर रह सकती है.
अब आरएसएस फिर से जमीनी मुहिम चलाकर लोगों को हेमंत सोरेन के कैंपेन को काउंटर करने की कोशिश करेगा – और महाराष्ट्र में भी ऐसा ही करना होगा. लोकसभा चुनाव के नतीजे तो यही बताते हैं कि महाराष्ट्र के लोग उद्धव ठाकरे के प्रति बीजेपी के बर्ताव से खुश नहीं हैं – और उद्धव ठाकरे के साथ होने की वजह से शरद पवार और कांग्रेस को भी फायदा हुआ है.
संघ को फिर बीजेपी को पहले जैसी कामयाबी दिलाने की कोशिश है – लेकिन क्या इतना वक्त बचा है?