राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) पिछले कुछ समय से संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ के खिलाफ लगातार मुखर रहा है. RSS से संबद्ध एक वीकली मैगजीन में प्रकाशित लेख के जरिए कहा गया है कि इमरजेंसी के दौरान संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द वैचारिक बारूदी सुरंगें हैं, जिन्हें धार्मिक मूल्यों को खत्म करने और राजनीतिक तुष्टीकरण (political appeasement) के लिए शामिल किया गया था.
लेख के अनुसार अब वक्त आ गया है कि उस गलती को सुधार लिया जाए और संविधान को मूल स्वरूप में वापस लाया जाए. इससे पहले आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने भी इस मसले पर राष्ट्रीय बहस का आह्वान किया कि क्या संविधान की प्रस्तावना में ये 2 शब्द वहीं बने रहने चाहिए, क्योंकि वे कभी भी मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे.
ये 2 शब्द संवैधानिक धोखाधड़ी
वीकली मैगजीन ऑर्गनाइजर की वेबसाइट पर शनिवार को प्रकाशित लेख में संविधान की प्रस्तावना में इन 2 शब्दों को शामिल किए जाने को संवैधानिक धोखाधड़ी करार दिया गया है. लेख के अनुसार, ये दोनों शब्द महज सौंदर्यवर्धक जोड़ (cosmetic additions) नहीं हैं, बल्कि वैचारिक रूप से चीजें थोपने के समान (ideological imposition) भी हैं जो भारत की सभ्यतागत पहचान और संवैधानिक लोकतंत्र की मूल भावना के उलट हैं.
लेख में आगे कहा गया, किसी भी संविधान सभा ने इन शब्दों को कभी मंजूरी नहीं दी. 42वां संवैधानिक संशोधन इमरजेंसी के दौरान पारित किया गया था, जब संसद दबाव में काम कर रही थी, बड़ी संख्या में विपक्षी नेता जेल में थे और मीडिया पर प्रतिबंध लगा हुआ था. उसमें आगे यह भी कहा गया कि यह संवैधानिक धोखाधड़ी का कृत्य था.
‘फिर से पुराने प्रस्तावना लाया जाए’
डॉ. निरंजन बी. पूजार ने प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का पुनरावलोकन (Revisiting Socialist and Secular) नाम से लिखे अपने लेख में कहा, भारत को अब मूल प्रस्तावना पर वापस लौटना चाहिए जैसा कि संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी… आइए हम इमरजेंसी के संवैधानिक पाप को खत्म करें और देश के लोगों के लिए पुरानी प्रस्तावना को फिर से हासिल करें.
उन्होंने आगे कहा, समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द भावना से भारतीय नहीं हैं, कार्यप्रणाली से भी संवैधानिक नहीं हैं और अपनी मंशा से लोकतांत्रिक भी नहीं हैं. बल्कि ये वैचारिक बारूदी सुरंगें हैं, जिन्हें धार्मिक मूल्यों को खत्म करने, राज्य की पहुंच को उचित ठहराने और राजनीतिक तुष्टीकरण के लिए तैयार किया गया.
‘हम कोई समाजवाद देश नहीं’
लेख में आगे कहा गया है कि संवैधानिक सफाई बहुत जरूरी है, इसलिए ‘समाजवाद और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाना विचारधारा के बारे में नहीं है, बल्कि संवैधानिक ईमानदारी को बहाल करना, राष्ट्रीय गरिमा को फिर से हासिल करना और राजनीतिक पाखंड को खत्म करना है.
लेख में आगे जोर देकर कहा गया, “अगर हम सचमुच आंबेडकर का सम्मान करते हैं, लोकतंत्र का सम्मान करते हैं और भारत में विश्वास करते हैं, तो हमें यह सब करना होगी.” “हम कोई समाजवादी देश नहीं हैं. हम कोई धर्मनिरपेक्ष-नास्तिक देश (secular-atheist state) नहीं हैं. हम एक धार्मिक सभ्यता वाले देश हैं जिसकी जड़ें बहुलवाद, स्वराज और आध्यात्मिक स्वायत्तता में हैं. आइए, अपने संविधान में ऐसा कहने का साहस करें.”