भारत की करीब 3 पीढ़ियों के बच्चों की जिंदगी में रंग भरने का काम करने वाले दादा यानी सुभाष दांडेकर अब इस दुनिया में नहीं रहे. वह Camlin जैसे ब्रांड के फाउंडर थे, जो पहले सिर्फ स्याही बनाने का काम करती थी, लेकिन सुभाष दांडेकर ने स्याही के इस कारोबार को भारत का सबसे बड़ा स्टेशनरी ब्रांड बना दिया. चलिए जानते हैं उनकी जर्नी के बारे में…
सुभाष दांडेकर का निधन 15 जुलाई को 86 साल की उम्र में हुआ. वह बीते कुछ समय से बीमार चल रहे थे, उन्हें हिंदुजा हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था. उनका अंतिम संस्कार शिवाजी पार्क श्मशान घाट में हुआ.
1931 से शुरू हुआ सफर
कैमलिन ब्रांड की कहानी 1931 से शुरू होती है. कंपनी की शुरुआत डी.पी. दांडेकर और जी. पी. दांडेकर ने की थी. तब इसका नाम दांडेकर एंड कंपनी रखा गया. तब कंपनी मुख्य तौर पर स्याही बनाने का काम करती थी. हालांकि उस समय कंपनी को बहुत स्ट्रगल करना पड़ा, क्योंकि इंपोर्टेड आइटम सस्ते होते थे.
कॅम्लिन उद्योग उभे करणारे ज्येष्ठ उद्योजक सुभाष दांडेकर यांच्या निधनाने मराठी उद्योगविश्वाला नावलौकिक मिळवून देणारे दादा व्यक्तिमत्त्व आपण गमावले आहे.
सुभाष दांडेकर यांनी केवळ कॅम्लिन उद्योगाची उभारणी केली नाही तर हजारो तरूणांच्या हाताला रोजगार देऊन त्यांच्या जीवनात रंग भरले.… pic.twitter.com/5FPWUAlVXB
— Devendra Fadnavis (@Dev_Fadnavis) July 15, 2024
घोड़े से ऊंट बना लोगो
कैमलिन ब्रांड का नाम तो शुरू से यही रहा, लेकिन इसका लोगो पहले एक घोड़ा होता था. लेकिन इसके ऊंट में बदलने की कहानी दिलचस्प है, जिसके बारे में कंपनी के चंद्रशेखर ओझा ने बताया था. एक बार डी. पी. दांडेकर मुंबई के एक ईरानी कैफे में बैठे थे, जिस पर कैमल सिगरेट का पोस्टर था. बस इसी पोस्टर को देखकर उन्होंने कंपनी के ब्रांड का लोगो कैमल कर दिया.
1960 में बदल गया सबकुछ
कैमलिन को नए तरीके से तराशने का काम किया फाउंडर सुभाष दांडेकर ने. 1960 के दशक में उन्होंने कैमलिन ब्रांड को एक्सपेंड किया और स्याही से आगे बढ़ाकर इसे रंगों की दुनिया में उतारा. उन्होंने पहले पानी के रंग बनाने शुरू किए, उन्हें केक के फॉर्म में बाजार में उतारा. इसी के साथ कंपनी ने बाकी तरह के रंग और अन्य सामान बाजार में उतारने शुरू कर दिए.
साल 2011 में सुभाष दांडेकर ने अपने फेमस कैमलिन ब्रांड में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी जापान की कंपनी कोकुयो को बेच दी. इस डील के बाद कैमलिन के प्रोडक्ट दूसरे देशों में जाने लगे, जबकि कोकुयो के प्रोडक्ट भारतीय बाजार में आने लगे. सुभाष दांडेकर तब से कंपनी के मानद चेयरमैन बन हुए थे.