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सुप्रीम कोर्ट ने 20 साल की अविवाहित लड़की को नहीं दी गर्भ गिराने करने की इजाजत

सुप्रीम कोर्ट ने 20 वर्षीय एक अविवाहित युवती की याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया, जिसमें 27 सप्ताह के गर्भ को नष्ट करने देने की अनुमति मांगी गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गर्भ में पल रहे भ्रूण का भी जीवन का मौलिक अधिकार है. याचिकाकर्ता के वकील के मुताबिक पीठ ने कहा, ‘हम कानून के विरोधाभासी आदेश पारित नहीं कर सकते.’ इस पीठ में जस्टिस एसवीएन भट्टी और न्यायमूर्ति संदीप मेहता भी शामिल थे. पीठ ने कहा, ‘गर्भ में पल रहे बच्चे को भी जिंदा रहने का मौलिक अधिकार प्राप्त है. इस बारे में आपको क्या कहना है? महिला का पक्ष रख रहे वकील ने कहा कि गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन अधिनियम केवल मां की बात करता है. उन्होंने कहा, ‘यह (कानून) केवल मां के लिए बनाया गया है.

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पीठ ने कहा कि गर्भ अब करीब सात महीने का हो गया है. अदालत ने सवाल किया, ‘गर्भ में पल रहे बच्चे के जिंदा रहने के अधिकार का क्या? आप उसका जवाब कैसे देंगे? वकील ने कहा कि जब तक भ्रूण गर्भ में होता है और बच्चे का जन्म नहीं हो जाता तब तक यह अधिकार मां का होता है. उन्होंने कहा, ‘याचिकाकर्ता इस समय अत्याधिक पीड़ा से गुजर रही है. वह बाहर नहीं जा सकती.वह नीट परीक्षा की कक्षाएं ले रही है. वह बहुत ही पीड़ादायक स्थिति से गुजर रही है. वह इस अवस्था में समाज का सामना नहीं कर सकती. वकील ने कहा कि पीड़िता की मानसिक और शारीरिक बेहतरी पर विचार किया जाना चाहिए. इस पर पीठ ने कहा, ‘क्षमा करें’.

उच्च न्यायालय ने तीन मई के आदेश में रेखांकित किया कि 25 अप्रैल को अदालत ने AIIMS को मेडिकल बोर्ड गठित करने का निर्देश दिया था ताकि भ्रूण और याचिकाकर्ता की स्थिति का आकलन किया जा सके. उच्च न्यायालय ने कहा था, ‘रिपोर्ट (मेडिकल बोर्ड की) को देखने से पता चलता है कि भ्रूण में कोई जन्मजात असामान्यता नहीं है और न ही मां को गर्भावस्था जारी रखने से कोई खतरा है, जिसके लिए भ्रूण को समाप्त करना अनिवार्य हो. इसने फैसले में कहा, ‘चूंकि भ्रूण व्यवहार्य और सामान्य है, और याचिकाकर्ता को गर्भावस्था जारी रखने में कोई खतरा नहीं है, इसलिए भ्रूणहत्या न तो नैतिक होगी और न ही कानूनी रूप से स्वीकार्य होगी.

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