भाषा विवाद के बीच तमिलनाडु की सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया है. तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने इस बार राज्य के बजट से ‘₹’ का सिंबल हटाते हुए उसे ‘ரூ’ सिंबल से रिप्लेस कर दिया है.
बता दें कि देशभर में ₹ का सिंबल बजट का आधिकारिक प्रतीक है. लेकिन तमिलनाडु की सरकार ने इसे ही रिप्लेस कर दिया है. ₹ के सिंबल को जिस ரூ सिंबल से रिप्लेस किया गया है, वह तमिल लिपि का अक्षर ‘रु’ है. यहां खास बात यह है कि पहली बार किसी राज्य ने ₹ के सिंबल में बदलाव किया है.
World War 3 will be for language, not land! pic.twitter.com/0LYWoI3K0r
— India 2047 (@India2047in) July 4, 2025
तिरंगे पर आधारित है ₹ सिंबल
बता दें कि देश में रुपए (₹) का जो सिंबल है, उसका डिजाइन उदय कुमार धर्मलिंगम ने बनाया था, जो कि पेशे से एक शिक्षाविद और डिजाइनर हैं. उनका डिजाइन पांच शॉर्ट लिस्टेड सिंबल में से चुना गया था. धर्मलिंगम के मुताबिक उनका डिजाइन भारतीय तिरंगे पर आधारित है.
तमिलनाडु के ही रहने वाले हैं उदय
यहां हैरान करने वाली बात यह है कि उदय कुमार धर्मलिंगम तमिलनाडु विधानसभा में DMK यानी एमके स्टालिन की ही पार्टी से विधायक रह चुके एन. धर्मलिंगम के बेटे हैं. उन्होंने 2010 में इस डिजाइन को बनाया था, जिसे आधिकारिक तौर पर भारत सरकार ने अपना लिया था. उदय कुमार धर्मलिंगम तमिलनाडु के कल्लाकुरिची के रहने वाले हैं.
हिंदी विरोध को लेकर छिड़ी है जंग!
तमिलनाडु सरकार का ये फैसला ऐसे समय आया है, जब पहले से ही तमिलनाडु में हिंदी के विरोध को लेकर सियासी जंग छिड़ी हुई है. दरअसल, हाल ही में तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने जबरन हिंदी थोपने का आरोप लगाया था.
‘खत्म होती जा रहीं प्राचीन भाषाएं’
एमके स्टालिन ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर पोस्ट करते हुए कहा था,’अखंड हिंदी पहचान की कोशिश के कारण प्राचीन भाषाएं खत्म हो रही हैं. बिहार और उत्तर प्रदेश कभी भी हिंदी के इलाके नहीं रहे. लेकिन अब उनकी असली भाषा भूतपूर्व की प्रतीक चिन्ह बनकर रह गई हैं.’
इन भाषाओं को नष्ट करने का आरोप
स्टालिन ने दूसरे राज्यों के लोगों से अपील करते हुए कहा था,’दूसरे राज्य में रहने वाले मेरे भाइयों और बहनों, क्या आपने कभी इस बारे में विचार किया है कि हिंदी भाषा ने न जाने कितनी दूसरी भाषाओं को लील लिया है. मुंडारी, मारवाड़ी, कुरुख, मालवी, छत्तीसगढ़ी, संथाली, कुरमाली, खोरठा, मैथिली, अवधी, भोजपुरी, ब्रज, कुमाऊंनी, गढ़वाली, बुंदेली और कई सारी भाषाएं अब अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं.’