गोंडा : एक दौर था जब रमजान की सहर में गांवों की संकरी गलियों में तकियादारों की आवाजें गूंजा करती थीं— “उठो ऐ रोजेदारों, सहरी का वक्त हो गया है…” लेकिन आधुनिकता की तेज़ रफ्तार और तकनीक के बढ़ते प्रभाव ने इस खूबसूरत परंपरा को धीरे-धीरे खत्म कर दिया. अब न वह ढपली की आवाज सुनाई देती है, न तकियादारों के जत्थे गलियों में घूमते दिखते हैं.
तकियादारों की पहचान थी उनका पहनावा और अंदाज
टोपियां पहने, गले में हरे रंग का गमछा डाले, हाथ में ढपली या ढोलक थामे तकियादार रमजान की रातों में सोए हुए रोजेदारों को जगाने निकलते थे. यह न केवल धार्मिक परंपरा थी, बल्कि गांवों के सामाजिक ताने-बाने का हिस्सा भी थी. खासतौर पर वजीरगंज क्षेत्र में इनकी टोलियां अलग-अलग गांवों में सहर के समय जागरण के लिए जाया करती थीं.
तकियादारी की जगह ले लिया लाउडस्पीकर और मोबाइल ने
रिज्वीनगर बौगड़ा मोहर्रम अब्बासिया कमेटी के अध्यक्ष मोहसिन रजा विल्सन बताते हैं, “मैंने करीब 30 वर्षों तक रमजान में तकियादारों को आवाज लगाते देखा है, लेकिन मोबाइल फोन और लाउडस्पीकर आने के बाद यह परंपरा धीरे-धीरे खत्म हो गई.”
धनेश्वरपुर इमाम-ए-आजम अबू हनीफा मदरसा इंतजामिया कमेटी के चेयरमैन मौलाना जाहिद अली भी इस बदलाव की पुष्टि करते हैं. उनके अनुसार, “तकियादारों की यह रस्म मोबाइल फोन के प्रचलन के साथ ही समाप्त होने लगी थी। पहले लोग चांद रात को तकियादारों को फितरा और जकात दिया करते थे, लेकिन अब यह परंपरा इतिहास बन गई है.”
सिर्फ यादों में रह गई तकियादारी की रस्म
तकियादार न केवल रोजेदारों को सहरी के लिए जगाते थे, बल्कि गांवों की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान का अहम हिस्सा भी थे. लेकिन वक्त बदल गया, और तकियादारों की जगह अलार्म, मोबाइल नोटिफिकेशन और लाउडस्पीकर ने ले ली. जो परंपरा कभी रमजान की रूहानी फिज़ा को और खास बना देती थी, वह अब सिर्फ पुरानी पीढ़ी की यादों में सिमटकर रह गई है.