Supreme Court on DNA testing: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक बच्चे के लिए अपने वास्तविक पिता का पता लगाने की कोशिश करना सही हो सकता है, लेकिन हर मामले में कोर्ट डीएनए टेस्ट की अनुमति नहीं दे सकता. इस टिप्पणी के साथ कोर्ट ने 20 साल से चले आ रहे एक पितृत्व विवाद का निपटारा कर दिया.
जिस मामले में यह फैसला आया है, वह 23 साल के एक युवक से जुड़ा है. उसका कहना था कि उसकी मां ने अवैध संबंध से उसके जन्म की बात कही थी. युवक ने बताया था कि वह बचपन से ही कई स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहा है. वह और उसकी मां इसका खर्च उठाने में असमर्थ हैं. ऐसे में उसे अपने असली पिता से भरण-पोषण पाने का अधिकार है. उधर जिस व्यक्ति को युवक अपना पिता बता रहा था, वह डीएनए जांच का विरोध कर रहा था.
महिला ने किया था ये दावा
यह मामला इंडियन एविडेंस एक्ट से सीधे जुड़ा है. एक्ट की धारा 112 कहती है कि अगर कोई विवाहित है और अपने पति या पत्नी के साथ रहता है तो इस विवाहित संबंध के दौरान पैदा संतान वैध मानी जाएगी. अगर पति की मृत्यु हो गई है, तब भी उसकी मृत्यु के 280 दिन के भीतर पैदा बच्चे को उसी का माना जाएगा. इस मामले में युवक की मां और उनके पति 2003 तक साथ रह रहे थे. युवक का जन्म 2001 में हुआ था. 2006 में अपने पति से तलाक के बाद महिला यह दावा करने लगी कि उसका बेटा दूसरे पुरुष की संतान है.
‘पहले पति की संतान है लड़का’
महिला के इस दावे के बाद शुरू हुई कानूनी लड़ाई आखिरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची. अब जस्टिस सूर्यकांत और उज्ज्वल भुइयां की बेंच ने इस पर फैसला दिया है. जजों ने एविडेंस एक्ट की धारा 112 के आधार पर यह माना है कि युवक अपनी मां के पूर्व पति की वैध संतान है. जजों ने आगे कहा है कि पितृत्व जांच के लिए टेस्ट का आदेश तभी दिया जा सकता था, जब बच्चे के जन्म को लेकर कानूनन कोई संदेह की स्थिति हो.
‘जबरन डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता’
कोर्ट ने कहा है कि जिस व्यक्ति को युवक अपना पिता बता रहा है, उसकी निजता और सामाजिक प्रतिष्ठा का ध्यान रखना भी ज़रूरी है. किसी को जबरन डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. इस मामले में भले ही मां भी मुकदमे का एक पक्ष है, लेकिन इस केस का असर दूसरी महिलाओं पर भी पड़ेगा. अगर लोगों को पिता की जानकारी पाने के लिए डीएनए टेस्ट करवाने की छूट दी गई, तो भविष्य में महिलाओं की प्रतिष्ठा को भी चोट पहुंच सकती है.