पन्ना : जहां एक ओर सरकारें ‘डबल इंजन की ताकत’ से देश के हर गांव तक विकास की रफ्तार पहुंचाने के दावे कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर ज़मीनी हकीकत इन दावों की पोल खोलने के लिए काफी है.जनपद पंचायत शाहनगर के मुख्यालय से महज 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम महुआखेड़ा के कौड़न टोला में आज़ादी के 77 साल बाद भी न बिजली पहुंची, न पक्की सड़क बनी और न ही शुद्ध पेयजल की व्यवस्था हो पाई है.
गांव की स्थिति इतनी बदतर है कि यहां रात के समय घुप अंधेरा छा जाता है। बिजली के खंभे तक नहीं लगाए गए हैं, जिससे यह साफ़ झलकता है कि यहां आज तक किसी तरह की आधारभूत व्यवस्था की सुध नहीं ली गई. जब मीडिया की टीम ने मौके पर जाकर वस्तुस्थिति का जायजा लिया, तो देखा कि पूरे टोले में न तो बिजली की कोई लाइन बिछी है और न ही सड़कों का कोई नामोनिशान है.लोग आज भी कच्चे रास्तों से गुजरने को मजबूर हैं, जो बारिश में दलदल में तब्दील हो जाते हैं.
ग्राम पंचायत के सरपंच ध्रुव सिंह ने बताया कि इस समस्या को लेकर उन्होंने न सिर्फ बिजली विभाग को, बल्कि विधायक, जिला प्रशासन और जनपद के अधिकारियों को भी कई बार लिखित में अवगत कराया है.दर्जनों बार आवेदन दिए गए, पत्राचार किया गया, लेकिन हर बार केवल आश्वासन ही मिला और नतीजा—शून्य.
इस टोले के लोग हर चुनाव में उम्मीद के साथ मतदान करते हैं कि शायद इस बार कोई जनप्रतिनिधि उनकी दशा बदलेगा, लेकिन हर बार इनकी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है.सोचने वाली बात यह है कि जब मुख्यालय से महज कुछ ही किलोमीटर दूर बसे गांव की यह हालत है, तो दूर-दराज़ के क्षेत्रों की स्थिति क्या होगी—यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं.
सरकारें विकास के जो दावे करती हैं, क्या वे सिर्फ शहरी क्षेत्रों या मुख्य सड़कों तक ही सीमित हैं? क्या गांवों की यह उपेक्षा देश के समग्र विकास की तस्वीर को धूमिल नहीं करती? 21वीं सदी में, जहां हम डिजिटल इंडिया और स्मार्ट सिटी की बातें करते हैं, वहां एक ऐसा टोला जहां आज तक बिजली की रौशनी तक नहीं पहुंची—यह न सिर्फ प्रशासनिक उदासीनता का उदाहरण है बल्कि लोकतंत्र के सबसे निचले स्तर पर बैठे आमजन की पीड़ा की सच्ची तस्वीर भी है.