करौली : राजस्थान के करौली जिले में भगवान महावीर स्वामी का ऐसा मंदिर, जिसकी प्रतिमा गाय के दूध से निकली. 450 साल पुराने इस मंदिर में आज भी ग्वालों के वंशज के बगैर भगवान महावीर की रथ यात्रा नहीं निकलती है. ये मंदिर है हिंडौन में स्थित श्री महावीर जी. दिगंबर जैन समाज के साथ इस तीर्थ में सभी धर्म के लोगों में गहरी आस्था है.
मान्यता है कि एक ग्वाले की गाय की वजह से जमीन में धंसी भगवान महावीर की प्रतिमा के बारे में पता चला. जहां पर ये टीला था, वहां अब पद चिन्ह छत्री है. जिस पर यहां आने वाले भक्त आज भी दूध चढ़ाते है.
टीले पर गाय दूध गिराने लगी थी
मान्यता है : गांव में किरपादास नाम का ग्वाला रहता था. उसकी धौली नाम की गाय थी। बताते है कि जब भी उसकी गाय धौली जगंल में चरकर आती और दूध दोहते तो वह नहीं निकलता था. किरपादास और उसकी पत्नी दोनों परेशान होने लगे. सोचने लगे कि इसका बछड़ा तो घर पर रहता है लेकिन गाय का दूध कहां जा रहा है ?
यह जानने के लिए ग्वाले किरपादास ने गाय का पीछा करना शुरू किया. पता चला कि गाय जंगल में चरकर एक टीले पर जाती है. इस टीले पर जाते ही गाय का दूध अपने आप यहां गिरने लग जाता है. इसका रहस्य जानने के लिए किरपादास अगले दिन टीले पर पहुंचा. टीले को उसने जैसे ही खोदना शुरू किया किसी चीज से टकराने की आवाज आई.
शाम को दोबारा घर लौटा. कहते है कि रात में किरपादास को ऐसा लगा कि जैसे उसे कोई नींद में कह रहा हो कि धीरे-धीरे खोदाना, नीचे मूर्ति है. अगले दिन फिर किरपादास टीले पर पहुंचा और खुदाई शुरू की. कहते है कि यहीं से भगवान महावीर की ये प्रतिमा निकली जो आज भी श्रीमहावीर में विराजित है.
ग्वाले के हाथ लगाते ही रथ चल पड़ा
इधर, ये बात आस-पास के गांवों में पहुंची। वसवा गांव के अमरचंद विलाला को जब इस बारे में पता चला तो वे चांदन गांव पहुंचे. यहां किरपादास की झोपड़ी में पहुंचे और दर्शन किए.इन तीन शिखर का निर्माण अमरचंद ने करवाया था.
इन शिखर पर सोने के कलश स्थापित किए गए
कहते है कि जब भगवान महावीर को मंदिर में विराजित करने का समय आया तो किरपादास चिंतित होने लगा. उसने लगने लगा था कि भगवान महावीर उसकी कुटिया छोड़ अब मंदिर में रहेंगे. इधर, अमरचंद विलाला ने प्रतिमा को रथ पर चढ़ाया.
मान्यता है कि रथ आगे नहीं खसका. इसे लेकर कहा जाता है कि भगवान महावीर को मंदिर तक पहुंचाने के लिए 900 रथ टूट गए थे, जिनका जिक्र भजनों में भी होता है. ये रथ आगे नहीं खिसके. आखिरकार अमरचंद किरपादास के यहां पहुंचे और उसे रथ तक चलने को कहा. मान्यता है कि जैसे ही किरपादास ने रथ के हाथ लगाया, वह चलने लगा.
आज भी निभाई जा रही है 400 साल पुरानी परंपरा
श्री महावीर जी के मुख्य मंदिर परिसर के पास ही टीले का स्थान है. जिसे चरण चिन्ह छत्री कहा जाता है. बताया जाता है कि किरपादास के पांच बेटे थे. वैशाख महीने की पंचमी को हर साल भगवान महावीर की रथ यात्रा निकलती है. आज भी ये रथ यात्रा किरपादसा के वंशजों के बगैर नहीं निकलती है. जिन्हें ग्वाला का वंशज भी कहा जाता है.
चैत्र महीने की द्वितीया से लेकर वैशाख महीने की पंचमीं तक किरपादास के पांचों बेटों के वंशज चरण चिंह छत्री पर एक साथ बैठते है. 15 दिनों तक पांचों भाई यहां सेवा करते है. जब रथयात्रा निकाली जाती है तो इन ग्वाला वंश के इन पांचों भाइयों को बुलाया जाता है और रथ पर हाथ लगाया जाता है. जब तक ये हाथ नहीं लगाते तब तक यात्रा भी नहीं निकलती.
श्री महावीर जी में ग्वाला वंशजों के 400 परिवार है, जिनमें पांच हजार सदस्य है. ये सब इन्हें टीले वाले बाबा के रूप में भी पूजते है. इन 15 दिनों में चरण चिन्ह छत्री पर जो भी चढ़ावा आता है वह 400 परिवार में बांटा जाता है.
श्रीमहावीर जी के प्रति जैन समाज के अलावा अन्य समाज के लोगों में भी गहरी आस्था है.
इसे बता चुके चमत्कारी तीर्थ
आचार्य 108 विद्यानंदजी मुनिराज के अनुसार यह स्थल बिहार प्रांत के वर्धमान महावीर की दिव्य उपस्थिति का अनुभव कराता है. आचार्य 108 वर्धमान सागरजी महाराज ने इसे अतिशयकारी और चमत्कारी तीर्थ कहा है. यह स्थल अनेकांतवाद, अहिंसा और सामाजिक समता जैसे जैन सिद्धांतों को जीवंत करता है और सर्वधर्म समभाव का संदेश देता है.
इसकी देखरेख दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी की ओर से की जाती है. यहां दिगंबर आमना के तहत पूजा होती है. खास बात ये भी है कि रथयात्रा के दिन भगवान महावीर को गंभीरी नदी तक ले जाया जाता है. जिस रथ में भगवान महावीर विराजित होते है वह करीब 90 साल पुराना है. इस रथ में मीणा और गुर्जर समाज के लोग भी खासतौर पर मौजूद रहते है.