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अमेरिका के उस ‘अशुभ मंगल’ की कहानी जिसकी आहट भर से 95 साल बाद आज भी सहम जाती है दुनिया!

एक कहावत है…

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When America sneezes, everywhere catches a cold. यानी जब अमेरिका छींकता है तो हर जगह सर्दी पकड़ लेती है… इस शुक्रवार भारतीय शेयर बाजार में तेज गिरावट आई, निवेशकों के 5 लाख करोड़ एक झटके में डूब गए, बताया गया कि अमेरिका के जॉब डाटा से मंदी की आहट है और इसी का असर भारतीय शेयर बाजार पर दिख रहा, इससे पहले पिछले महीने यानी अगस्त के पहले हफ्ते में भी जब अमेरिका में बेरोजगारी दर के बढ़े हुए आंकड़े आए तो पूरी दुनिया सहम गई. अमेरीकी शेयर बाजार में हलचल हुई, गिरावट का वो दौर अमेरिका-जापान-कोरिया होते हुए भारत के बाजारों तक भी पहुंच गया. कहा जाने लगा कि दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही है. भारत समेत दुनिया के सभी शेयर बाजार क्रैश होने लगे. धड़ाधड़ लोग शेयर बेचने लगे और निवेशकों के लाखों करोड़ रुपये एक-दो सेशन में ही डूब गए.

इस माहौल में लोगों को 1929 की महामंदी का खौफ सताने लगा. उस ब्लैक ट्यूज्डे यानी ‘अशुभ मंगल’ की याद आ गई, जिसने पूरी दुनिया में तबाही मचा दी थी. हम आपको बताएंगे कि आखिर 95 साल पहले उस मंगलवार को आखिर क्या हुआ था, जिसकी आहट भर से हलचल मच जाती है, जिसे लेकर आज भी दुनिया भर के दिग्गज कारोबारी और आर्थिक विश्लेषक शेयर बाजार पर चेताते रहते हैं.

बैड टेस्ट से पहले का फील गुड…

अगर हममें से अधिकांश लोगों से पूछा जाए कि मस्ती, रईसी और खुशहाली वाली जिंदगी जीने के लिए दुनिया में कहां जाया जा सकता है तो सबके मन में अमेरिकन ड्रीम फट से झलक दिखला जाएगा. अमेरिका यानी दुनिया के अंकल सैम की रईसी की ये कहानी कोई नई नहीं है.

आज से करीब एक शताब्दी पहले यानी साल 1928 के पतझड़ में अमेरिका के भावी राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर ने घोषणा की- ‘हम आज अमेरिका में इतिहास में पहली बार गरीबी पर अंतिम विजय के काफी करीब हैं.’ अधिकांश अमेरिकी नागरिक उनसे सहमत थे. लोगों ने इससे अच्छी जिंदगी को इससे पहले कभी नहीं जिया था. बेरोजगारी दर केवल 4 फीसदी तक थी यानी हर 100 में 96 लोगों के पास कमाई का जरिया था.

जैज म्यूजिक का चलन था, रेडियो खूब बिक रहे थे, बिजली और टेलीफोन लाइनें तेजी से बिछ रही थीं. लोग आराम से रह रहे थे. क्रेडिट पर शॉपिंग की सुविधा थी, कारें इतनी सस्ती हो गई थीं कि मिडिल क्लास आराम से खरीद सके. फ्लोरिडा जैसे शहरों में धड़ाधड़ मकान और प्लॉट बिक रहे थे. लोग खूब सैर-सपाटा कर रहे थे. शेयरों में निवेश के लिए हर कोई लालायित था. जिनके पास पैसे नहीं थे वे भी बैंकों से लोन लेकर शेयर बाजार की बहती गंगा में पैसा दोगुना-तिगुना कर रहा था. सब मस्ती में चल रहा था.

फिर महामंदी की दर्दभरी दस्तक…

पर उसके ठीक एक साल बाद वित्तीय दहशत हावी हो गई. न्यूयॉर्क शेयर बाजार टूट गया, कारोबार बंद हो गए, बैंक तबाह हो गए, करोड़पति बर्बाद हो गए और आम नागरिकों ने भी अपनी पूरी जिंदगी की बचत गंवा दी. लोगों ने अपनी नौकरी और घर सब खो दिया. अगले कुछ साल में हर 4 में से एक अमेरिकी बेरोजगार था. फिर ये आर्थिक संकट अमेरिका से आगे जाकर पूरी दुनिया में फैल गया. ये आधुनिक दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी थी, जिसे हम महामंदी या ग्रेट डिप्रेशन के नाम से जानते हैं.

29 अक्टूबर 1929 का दिन इतिहास में ‘काला मंगलवार’ के नाम से जाना जाता है. यह वह दिन था जब अमेरिका का शेयर बाजार धड़ाम से गिरा और इसके साथ ही दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं में एक भयंकर मंदी का आगाज हुआ. आखिर वो दिन कैसे आया?

ब्लैक थर्सडे से ब्लैक ट्यूजडे तक…

सोचकर देखिए, अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में एक चमचमाती हुई सुबह का समय है. लोग दफ्तरों और अपने कामों में व्यस्त हैं, सबकुछ नॉर्मल चल रहा है. शेयर बाजार में हलचल मची हुई है. निवेशक, जो पहले से ही बाजार में तेजी की उम्मीद कर रहे थे, अब अपने शेयरों को बेचने की तैयारी में हैं. लेकिन सबकुछ बहुत तेजी से बदलने वाला है.

वैसे तो इस बुरी कहानी की शुरुआत एक हफ्ते पहले यानी 24 अक्टूबर यानी गुरुवार के दिन ही हो गई थी, लेकिन तब किसी को अंदाजा नहीं था कि इस संकट की गहराई इतनी ज्यादा है. उस दिन शेयरों की कीमत गिरती रही लेकिन दोपहर आते-आते उसे संभालने का जिम्मा कुछ व्यवसायियों ने उठाया. उन्होंने शेयरों में जमकर खरीदारी की और चीख-चीख कर बाजार को बताया कि कोई संकट नहीं है, डरें मत. कीमतें फिर से बढ़ने लगीं और लोग चैन की सांस लेने लगे. लेकिन ये तूफान के पहले की शांति थी. 28 अक्टूबर को ब्लैक मंडे ने फिर दस्तक दी. गिरावट का रुख फिर दिखा लेकिन इसे भी बाजार ने इग्नोर किया. फिर आई 29 अक्टूबर यानी मंगलवार की सुबह जिसे फिर दुनिया भूल नहीं पाई.

आखिर क्या हुआ था उस दिन?

इस दिन न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में लगभग 1.6 करोड़ शेयरों की खरीद-बिक्री हुई लेकिन तेज गिरावट ने सारा मजा खराब कर दिया. एक साथ 11.73% की गिरावट आई. यह एक ऐसा मंजर था कि निवेशक बस अपना पैसा खोते हुए देखते रह गए. वॉल स्ट्रीट में ‘बेचो-बेचो’ के अलावा कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था. लाखों डॉलर शून्य में विलीन हो गए.

बाजार चारों खाने चित्त था. मैनहट्टन की एक इमारत की 44वीं मंजिल से कूदकर एक महिला ने जान दे दी. अभिनेता ग्राउसो मार्क्स अपना सबकुछ गंवा बैठे थे. अगले दो साल में दो हजार बैंक कंगाल हो गए और लोगों के सारे पैसे भी उन बैंकों के साथ जीरो हो गए. हर तरफ खौफ था, लुटे-पिटे निवेशक थे और अफवाहों का बाजार इतना गरम था कि ऊंची बिल्डिंग पर पेंटिंग करने चढ़े शख्स को देखकर लोग दौड़ पड़े कि कोई निवेशक सुसाइड करने चढ़ा है.

घबराए हुए लोग बैंकों की ओर दौड़े, अपने पैसे निकालने के लिए. लेकिन वहां भी ताला लगा था, बैंक खुद लोगों के पैसे लौटाने की स्थिति में नहीं थे. एक तो जिन लोगों ने लोन लेकर शेयरों में निवेश किया था वो लौटाने की स्थिति में नहीं थे, दूसरा बैंकों ने खुद शेयरों में लोगों का पैसा निवेश कर रखा था जिसकी वैल्यू अब शून्य हो चुकी थी.

जिनकी बचत के पैसे डूबे वो तो संकट में थे हीं लेकिन जिन्होंने लोन लेकर शेयर बाजार में पैसे लगा रखे थे वे डबल मुश्किल में थे, उनके पैसे तो डूबे लेकिन बैंकों को लोन तो चुकाना ही था. इस संकट में फंसकर अगले 4 साल में अमेरिका के करीब 11 हजार बैंक यानी आधे बैंक बंद हो गए. जो बैंक बंद नहीं हुए उसके इस्तेमाल से भी लोग डरने लगे.

उद्योग-धंधे ठप हो गए, बैंकों का दिवाला निकलने लगा. बाजार क्रैश के बाद लोगों को अंदाजा हुआ जैसे वे किसी कल्पनालोक में जी रहे थे, फैक्ट्रियां थीं लेकिन उसके प्रोडक्ट को बाजार में खरीदने वाला कोई नहीं था, लोगों की नौकरियां जाने लगीं. किसानों की फसल तैयार थी लेकिन सामान खरीदने वाला कोई नहीं था. हर तरफ तबाही थी. लोगों के पास खाना खाने के पैसे नहीं थे. फ्री खाना देने वाले सेंटर्स में डबलरोटी के लिए लंबी-लंबी लाइनें लगने लगीं. न्यूयॉर्क शहर में एक दिन में कम से कम 82 हजार भोजन निशुक्ल दिए जा रहे थे. लोग बेघर होकर सड़कों पर आ गए.

दुनिया पर क्या असर हुआ महामंदी का?

अमेरिकी कंपनियां दुनिया में हर जगह असर रखती थीं. अमेरिका में बैंक धराशायी हुए तो यूरोप में भी बैंक एक-एक कर तबाह होने लगे. पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी का असर देखने को मिला. यूरोप, एशिया और अन्य महाद्वीपों में भी उद्योग धंधे बंद होने लगे. लोगों की आय में कमी आई. और कई देशों में बेरोजगारी दर 33% तक पहुंच गई. इस मंदी के कारण 1929 से 1932 के दौरान वैश्विक औद्योगिक उत्पादन में 45% की भारी गिरावट आई और अगले एक दशक तक दुनिया के कई देशों को माल सप्लाई के संकट से जूझना पड़ा.

बेघर हुए अमेरिकी लोगों के लिए राष्ट्रपति हूवर ने ‘हूवर विले’ खोला जो कि मजाक का पात्र बन गया था. अर्थशास्त्री चाहते थे कि सरकार को हालात को संभालने के लिए कड़े कदम उठाने की जरूरत है लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. डैम बनाने की परियोजना में हालांकि 5000 लोगों को रोजगार मिला लेकिन महामंदी जैसे बड़े संकट से निपटने के लिए ये कदम नाकाफी साबित हुए.

किन उपायों से खत्म हुआ खौफ?

दूसरी ओर से इस हालात से निपटने का एक मॉडल लेकर आए न्यूयॉर्क के गर्वनर रूजवेल्ट. उनका मानना था कि सरकार को हर उस व्यक्ति की मदद के लिए तैयार रहना चाहिए जिसे मदद की जरूरत हो, क्योंकि नौकरी खोने से पहले उन लोगों ने देश की तरक्की में अपना योदगान दिया होता है. वे TERA प्रोग्राम लेकर आए जिसके तहत ये सुनिश्चित करना था कि बेरोजगार व्यक्ति के पास जीवित रहने के लिए पर्याप्त पैसे हों, इसके अलावा रोजगार पैदा करने के लिए उन्होंने कोशिशें की.

रूजवेल्ट ने कहा कि वे ये प्रोग्राम पूरे देश में लागू करना चाहते हैं. उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में उतरने का ऐलान किया. वे चुनाव में उतरे और मंदी से जूझ रहे अमेरिका ने उन्हें राष्ट्रपति चुन भी लिया. 4 मार्च 1933 को राष्ट्रपति बनने के बाद रूजवेल्ट ने ‘ब्रेन ट्रस्ट’ नाम से सलाहकारों का समूह बनाया जिसने अमेरिका को संकट से निकालने और विकास के लिए नई रणनीति बनाई. शराबबंदी को खत्म कर दिया गया ताकि सरकार के पास उससे आने वाले टैक्स से आय बढ़े. TERA कार्यक्रम के तहत खेतों में सड़ रही फसलों का इस्तेमाल लोगों का पेट भरने के लिए करने का फैसला किया. स्कूलों में लंच की पहली बार व्यवस्था की गई ताकि बच्चे भूखे ना रहें और परिवारों पर बोझ कम हो.

रूजवेल्ट की सरकार ने स्टॉक मार्केट को सरकारी नियंत्रण में ले लिया और ट्रेडिंग पर निगरानी के लिए सख्त नियम बनाए गए. जोसेफ केनेडी को स्टॉक एक्सचेंज कमीशन का अध्यक्ष बनाया गया. बैंकों का संकट खत्म करने के लिए केवल उन्हीं बैंकों को काम करने की इजाजत दी गई जिनका फंडामेंटल मजबूत था और स्थिर तरीके से काम कर सकने की स्थिति में थे. श्रमिक वर्ग को रोजगार देने के लिए CWA कार्यक्रम शुरू किया जिसके तहत देश भर में सड़कों, पार्कों, स्कूलों, पुलों, और आउट हाउस के निर्माण के काम कराए गए. इससे चालीस लाख से अधिक श्रमिकों को रोजगार मिला.

हर सिक्के के दो पहलू होते हैं…

आखिरकार 1941 में जापान ने जब अमेरिकी पर्ल हार्बर अड्डे पर हमला किया तो अमेरिका को युद्ध में उतरना पड़ा. युद्ध के लिए अमेरिकी फैक्ट्रियों में काम तेजी से होने लगा और युद्ध के फ्रंट पर भी बड़ी तादाद में लोगों की जरूरत पड़ी. इस तरह दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका के उतरने से रोजगार और उद्योगों की समस्या अपने-आप दूर होते चली गई.

1945 में जब दूसरा विश्व युद्ध खत्म हुआ तबतक अमेरिका मंदी की चपेट से निकलकर दुनिया का सबसे अमीर मुल्क बनकर उभर चुका था. आज 9 दशक बाद भी अमेरिका दुनिया का कारोबारी नेता है और उसके यहां नीतियों में होने वाला हर बदलाव दुनिया पर असर डालता रहा. यहां तक कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व के एक निगेटिव संकेत से पूरी दुनिया के शेयर बाजार हिल जाते हैं और एक सकारात्मक संकेत बड़ा उछाल ला देता है.

कब-कब आई दुनिया में आर्थिक मंदी?

#1929 की महामंदी- यह आर्थिक मंदी अमेरिका में शुरू हुई और इसका प्रभाव वैश्विक स्तर पर पड़ा. शेयर बाजार का पतन, बेरोजगारी और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट इसके प्रमुख लक्षण थे. यह मंदी 1939 तक चली.

#1973 का तेल संकट- यह मंदी तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक द्वारा तेल की कीमतों में वृद्धि के कारण हुई. इसके परिणामस्वरूप, कई विकसित देशों में आर्थिक संकट और उच्च मुद्रास्फीति का सामना करना पड़ा.

#2002 की मंदी- अमेरिका में डॉट-कॉम बबल के फूटने और 2001 के 9/11 हमले के बाद आई ये मंदी कई साल तक
दुनिया को परेशान करती रही. इसमें कई देशों की कंपनियां तबाह हो गई. इस दौरान कई देशों में बेरोजगारी बढ़ी और आर्थिक गतिविधियों में गिरावट आई. शेयर बाजार में भी भारी गिरावट देखी गई. नैस्डेक सूचकांक ने 2000 से 2002 तक लगभग 80% का नुकसान उठाया.

#2008 की मंदी- यह मंदी अमेरिका में हाउसिंग सेक्टर के संकट से शुरू हुई और पूरी दुनिया पर इसका असर हुआ. कई देशों के बैंक तबाह हो गए. इस दौरान कई देशों में आर्थिक विकास में गिरावट आई और बेरोजगारी बढ़ी.

#कोरोना लॉकडाउन- 2019 के अंत से शुरू हुई COVID-19 महामारी के कारण लागू लॉकडाउन ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित किया. इस दौरान, वैश्विक जीडीपी में 3% की गिरावट आई, जो पिछले संकटों की तुलना में अधिक थी.

ट्रंप और कमला हैरिस की आर्थिक नीति क्या है?

इस बार साल 2024 के राष्ट्रपति चुनाव में भी डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस के बीच आर्थिक नीतियों के अंतर की खूब चर्चा हो रही है. रिपब्लिकन ट्रंप अमेरिकी कंपनियों को प्राथमिकता देने, चीन के साथ व्यापार युद्ध छेड़ने और अमेरिकी तेल और गैस कंपनियों के वैश्विक कारोबार को प्रोत्साहन देने के जहां पक्षधर हैं वहीं डेमोक्रेट कमला हैरिस मध्य वर्ग और श्रमिक वर्ग को प्राथमिकता देने की पक्षधर हैं. कमला हैरिस कारपोरेट दर बढ़ाने और अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाने की भी पक्षधर हैं.

अंकल सैम से फिर खौफ की तरंगें क्यों आ रहीं?

एक तरफ अमेरिका में चुनाव करीब है तो दूसरी ओर मंदी की चर्चा भी चल पड़ी है. अंकल सैम यानी दुनिया की अगुवाई करने वाले अमेरिका में मंदी की चर्चा हाल में आए बेरोजगारी और जीडीपी के आंकड़ों के बाद फिर से हो रही है. हाल में जारी आंकड़ों के अनुसार अमेरिका में बेरोजगारी दर 4.3% पहुंच गई है, जो अक्टूबर 2021 के बाद का सबसे उच्च स्तर है.

यह लगातार तीसरा महीना है जब दुनिया के सबसे अमीर देश अमेरिका में बेरोजगारी दर बढ़ी है. अमेरिका में औसतन हर महीने 2.15 लाख नौकरियां क्रिएट होती हैं उसकी तुलना में सिर्फ 1.14 लाख नौकरियां ही उत्पन्न हुई हैं. दूसरा संकेत अप्रैल-जून 2024 तिमाही में अमेरिकी जीडीपी 2.8% की दर से बढ़ी जो कि निम्न स्तर है. महंगाई दर 6 फीसदी से ऊपर है. इन सब फैक्टर्स को देखते हुए एक्सपर्ट अमेरिकी मंदी की चर्चा करने लगे हैं.

वॉल स्ट्रीट के शेयर बाजार पर इसका सीधा असर दिखा. अगस्त के पहले हफ्ते में इन आंकड़ों के असर से नैस्डेक, एसएंडपी 500 और डाउ जोन्स जैसे सूचकांक में भारी गिरावट देखी गई. उसका असर भारतीय बाजारों पर भी देखा गया. हाल ही में, अमेरिका के एक चर्चित अर्थशास्त्री हैरी डोंट जिनका अनुमान बाजार और अर्थव्यवस्था को लेकर पहले सही भी हो चुका है, ने निवेशकों को चेताते हुए कहा था कि 14 साल से बाजार में एक बुलबुला बन रहा है और अगले साल यानी 2025 में 2008 से भी बड़ी मंदी आ सकती है.

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