संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने पाकिस्तान द्वारा आतंक को समर्थन देने और भारत के विरुद्ध इस्तेमाल करने को लेकर बड़ा बयान दिया है. उन्होंने स्पष्ट किया कि पाकिस्तान पुराने पैंतरों पर ही चल रहा है और भारत-पाक के बीच द्विपक्षीय और बहुपक्षीय मंचों पर कूटनीतिक प्रभाव बेहद सीमित है.
उन्होंने कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच कूटनीतिक स्तर पर बातचीत की गुंजाइश कम है और वैश्विक स्तर पर शांति और सुरक्षा प्राथमिक एजेंडे में नहीं हैं. उन्होंने कहा, “दक्षिण चीन सागर, अज़रबैजान-अर्मेनिया और कांगो-रवांडा जैसे मुद्दे भी सुरक्षा परिषद में हल नहीं हो पा रहे हैं, ऐसे में भारत-पाक जैसे जटिल मसले का समाधान वहां होना लगभग असंभव है.”
यूएन की भूमिका पर कही बड़ी बात
अकबरुद्दीन ने इस बात पर भी जोर दिया कि संयुक्त राष्ट्र का ढांचा अब बदलते वैश्विक खतरों के अनुसार फिट नहीं बैठता. उन्होंने कहा “यह 1945 की दुनिया के लिए उपयुक्त था, आज की नहीं. आतंकवाद जैसे विषयों पर यूएन की प्रक्रिया अप्रभावी है. मसूद अज़हर को आतंकवादी घोषित करवाने में हमें 20 साल लग गए.”
अकबरुद्दीन ने यह भी बताया कि किस तरह चीन जैसे देश पाकिस्तान का समर्थन करते हैं और पाकिस्तान बार-बार आतंकवादी संगठनों से पल्ला झाड़ कर बच निकलता है. उन्होंने कहा, “टीआरएफ ने पहलगाम हमले की जिम्मेदारी ली थी लेकिन बाद में पलट गया. इसी तरह जैश-ए-मोहम्मद ने पहले जिम्मेदारी ली, फिर पलट गया. ये बार-बार की गई रणनीति है.”
संयुक्त राष्ट्र में कार्यप्रणाली के संदर्भ में उन्होंने बताया कि सुरक्षा परिषद में अधिकांश निर्णय ‘सहमति’ के आधार पर होते हैं और जब दो सदस्य देश (जैसे चीन) किसी प्रस्ताव का विरोध करते हैं, तो वह आगे नहीं बढ़ सकता. उन्होंने कहा कि “यूएन प्रणाली सबऑप्टिमल है और ऐसे मामलों में काम नहीं करती.”
जब उनसे पूछा गया कि आगे का रास्ता क्या हो सकता है? तो अकबरुद्दीन ने कहा कि कूटनीति अब अपने चरम तक पहुंच चुकी है. हम पहले ही सिंधु जल संधि जैसे कदम उठा चुके हैं. अब समय है गैर-पारंपरिक सुरक्षा उपायों पर विचार करने का, हालांकि इनमें क्या शामिल होगा, यह जिम्मेदार अधिकारियों को तय करना है. उन्होंने अंत में यह भी जोड़ा कि भविष्य में यदि कोई प्रतिक्रिया हो तो उसमें कूटनीति की भूमिका केवल नतीजों को नियंत्रित करने तक सीमित रहेगी, समाधान ढूंढ़ने तक नहीं.