महाकुंभ 2025 के लिए प्रयागराज पूरी तरह तैयार है. उत्तर प्रदेश की इस धार्मिक नगरी में देश-विदेश से श्रद्धालु जुटने शुरू हो गए हैं. पौष पूर्णिमा के दिन से महाकुंभ में दिव्य स्नान की परंपरा शुरू हो जाएगी. अनुमान है कि इस बार 40 करोड़ से अधिक श्रद्धालु कुंभ स्नान के लिए पहुंचने वाले हैं. पुराण कथाएं कहती हैं कि महाकुंभ का आयोजन अमृत की खोज का परिणाम है, लेकिन यह कथा सिर्फ इतनी ही नहीं है. कुंभ से जुड़ी एक और कथा जिक्र पुराणों में मिलता है, जिसकी कहानी नागों से जुड़ी हुई है. इस कथा के केंद्र में भी अमृत ही है.
ऋषि कश्यप और उनकी दो पत्नियों की कथा
प्रयाग में कुंभ पर्व मनाए जाने के एक कारण में सर्पों का भी बड़ा योगदान माना जाता है. महाभारत के आदिपर्व में शामिल आस्तीक पर्व में सर्पों के योगदान का उल्लेख है, जिसमें इसकी पूरी पौराणिक कथा मौजूद है. कथा के अनुसार, ऋषि कश्यप की विवाह, प्रजापति दक्ष की कई पुत्रियों से हुआ था. इनमें उनकी दो पत्नियां थीं, कद्रू और विनता. एक बार कश्यप मुनि ने प्रसन्न होकर उन्हें वरदान मांगने को कहा.
सगी बहनें थी कद्रू और विनता
कद्रू ने अपने लिये हजार, शक्तिशाली संतानों की मांग की और विनता ने केवल दो, लेकिन योग्य संतानें ही मांगीं. वरदान के प्रभाव से कद्रू हजार सर्पों की माता बनीं. उधर, विनता को संतान के रूप में सिर्फ 2 अंडे प्राप्त हुए थे, जिनमें कई दिनों से कोई हलचल नहीं थी. अपनी बहन को जल्दी मां बन जाते देख एक दिन विनता से रहा नहीं गया और उसने एक अंडे को फोड़ कर देखने की कोशिश की, इसमें क्या है?
विनता ने जल्दबाजी में कर दी बड़ी गलती
जैसे ही विनता ने अंडा फोड़ा, तो उसमें से दो बड़े-बड़े पंखों वाला और बलिष्ठ शरीर वाला विशालकाय पक्षी निकला, लेकिन अंडा जल्दी में फोड़ देने के कारण वह विकसित नहीं हो सका था, इसलिए पैरों से कमजोर हो गया. अपूर्ण शरीर के साथ पैदा हुई इस संतान का नाम ‘अरुण’ रखा गया. अपनी मां की जल्दबाजी कर दिए जाने से अरुण उनसे खिन्न थे. इसलिए वह सूर्यलोक चले गए और सूर्यदेव के सारथि बन गए. जाते-जाते अरुण ने अपनी मां से कहा कि अगर तेजवान पुत्र चाहती हैं तो इस अंडे को मत फोड़ना.
दोनों बहनों के बीच बढ़ गई सौत भावना
इसके कुछ दिनों पर विनता की दूसरी संतान ने जन्म लिया. यह परमशक्तिशाली पुत्र गरुड़ के नाम से जाना गया. उधर, कद्रू और विनता के बीच सौतन की भावना बढ़ती जा रही थी. एक दिन कद्रू ने विनता से पूछा, इंद्र के घोड़े उच्चैश्रवा का रंग काला है या सफेद? विनता ने कहा, सफेद है, कद्रू अड़ गई और बोली कि नहीं, काला है. इस बात का निर्णय करने के लिए कद्रू ने कहा, चलो चलकर देख आते हैं, लेकिन उसने शर्त रखी कि जो हारेगा, उसे दासी बनकर रहना पड़ेगा.
इंद्र के घोड़े के रंग को लेकर लगी शर्त
दूसरे दिन कद्रू ने अपने सर्प पुत्रों को बुलाया और कपटपूर्वक उच्चैश्रवा घोड़े के रंग को काला बनाने को कहा. सांपों ने मां के छल में साथ दिया और कर्कोटक नाम का सर्प उस घोड़े की पूँछ में जाकर लिपट गया और उसे काला बना दिया. इसके बाद विनता को दिखाया गया कि यह घोड़ा काले रंग का है. कद्रू की इस कपट को विनता समझ गई, किंतु शर्त के अनुसार वह हार गई और उसे कद्रू की दासता में रहना पड़ा. गरुड़ को भी अपनी माँ के साथ उन सब सर्पों की सेवा करनी पड़ती थी.
एक दिन गरुड़ ने अपनी माँ से पूछा कि माँ, तुम्हारा यह बेटा इतना बलवान है, फिर भी तुम्हें इन सबकी दासता में रहना पड़ता है. इस पर माँ विनता ने कद्रू के सौतपन से कपटपूर्ण व्यवहार को बताया. यह सुनकर गरुड़ ने अपनी माँ से उस दासता से मुक्त होने का उपाय पूछा. इस पर विनता ने कहा कि यह तो तुम्हें उनसे ही पता चलेगा.
गरुड़ ने एक दिन सर्पों से कहा, ‘मैं तुम्हें क्या लाकर दूं? जिससे मुझे तथा मेरी माता को तुम्हारी दासता से छुटकारा मिल जाए?’’ गरुड़ की यह बात सुनकर सर्पों ने कहा, ‘‘गरुड़! तुम हमारे लिए अमृत ला दो तो तुम्हारी मां इससे मुक्त हो जाएगी.
श्रुत्वा तमब्रुवन् सर्पा आहरामृतमोजसा।
ततो दास्याद् विप्रमोक्षो भविता तव खेचर॥ (महाभारत, आस्तीक पर्व 16/27)
इसके बाद गरुण अपने पिता ऋषि कश्यप के पास पहुंचा और उनसे अमृत का पता पूछा. ऋषि कश्यप ने बताया कि अमृत स्वर्ग लोक में अमृत सरोवर के बीच स्थित है. इसकी रक्षा देवता खुद करते हैं. यह सुनकर गरुड़ अमृत सरोवर के पास पहुंचा तो अमृत की रक्षा करते हुए महाकाय देवों और अमृत कलश के चारो ओर घूमते हुए चक्र को देखकर वह हैरान हो गया. उसने सोचा कि ये देव और चक्र देवराज इंद्र ने अमृत कलश की सुरक्षा के लिए लगाए हुए है. चक्र में फंसकर मेरे पंख कट सकते है. इसलिए मैं अत्यंत छोटा रूप धारण कर इसके मध्य में प्रवेश करूंगा.
गरुड़ को देखकर एक देव ने उस पर हमला किया, लेकिन गरुण ने उसे घायल कर पराजित कर दिया. इसके बाद गरुड़ ने अमृत कलश पंजो में दबाया और वापस उड़ गया. इधर, यह सुनकर इंद्र अपनी देव सेवा की एक टुकड़ी के साथ वज्र उठाए गरुड़ की खोज में बढ़ चला. आकाश मार्ग में उड़ते हुए शीघ्र ही उसने गरुड़ को देख लिया और अपना वज्र चला दिया. इंद्र के वज्र का गरुड़ पर कोई असर न हुआ. उसके डैनों से सिर्फ एक पंख वज्र से टकराकर नीचे आ गिरा.
इंद्र ने कर ली गरुण से मित्रता
यह देख इंद्र सोचने लगे- “यह तो महान पराक्रमी है. मेरे वज्र का इस पर जरा भी असर नहीं हुआ. जबकि मेरे वज्र के प्रहार से पहाड़ तक टूट के चूर्ण बन जाते है. ऐसे पराक्रमी को शत्रुता से नहीं मित्रता से काबू में करना चाहिए.” यह सोचकर इंद्र ने गरुड़ से कहा- “पक्षीराज ! मैं तुम्हारी वीरता से बहुत प्रभावित हुआ हूं. इस अमृत कलश को मुझे सौंप दो और बदले में जो भी वर मांगना चाहते हो मांग लो.”
गरुड़ बोला- “यह अमृत मैं अपने लिए नही, अपनी माता को दासता से मुक्त कराने के लिए नाग माता को देने के लिए ले जा रहा हूं. इसलिए यह कलश मैं तुम्हे नहीं दूंगा.” इंद्र बोला- “ठीक है, इस समय तुम कलश ले जाकर नाग माता को सौंप दो किन्तु उन्हें इसे प्रयोग मत करने देना. उचित मौका देखकर मैं वहां से यह कलश गायब कर दूंगा.”
गरुड़ बोला, “अगर मैं तुम्हारी बात को मान लूं तो मुझे बदले में क्या मिलेगा ?”
इंद्र बोला- “तुम्हारा मनपसंद भरपेट भोजन. तब मैं तुम्हे इन्ही नागो को खाने की इजाजत दे दूंगा.” यह सुनकर गरुड़ अमृत कलश लेकर कद्रु के पास पहुंचा और कुश के आसन पर रख दिया. इसके बाद वह बोला- “माता ! अपनी प्रतिज्ञानुसार मैं अमृत कलश ले आया हूं. अब आप अपने वचन से मेरी माता को मुक्त कर दे.”
कद्रु ने उसी क्षण विनता को वचन से मुक्त कर दिया और अगली सुबह अमृत नागों को पिलाने का निश्चय कर वहां से चली गई. रात को उचित मौका देखकर इंद्र ने अमृत कलश उठा लिया और वापस स्वर्ग ले गए. दूसरे दिन सुबह नाग जब वहां पहुंचे तो अमृत कलश गायब देखकर दुखी हुए. उन्होंने उस कुश आसन को चाटना शुरू कर दिया कि उनकी जीभ दो हिस्सों में फट गई.
भगवान विष्णु से मिला गरुण को वरदान
गरुड़ की मातृभक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु गरुड़ के सम्मुख प्रकट हो गए और बोले- “मैं तुम्हारी मातृभक्ति देखकर बहुत प्रसन्न हूं पक्षीराज ! मैं चाहता हूं कि अब से तुम मेरे वाहन के रूप में मेरे साथ रहा करो.” गरुण भक्तिभाव से इसके लिए तैयार हो गया. इस तरह उसी दिन से पक्षीराज गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन के रूप में प्रयुक्त होने लगे. गरुड़ के भगवान विष्णु की सेवा में जाते ही देवता भयमुक्त हो गए.
जिस स्थान पर गरुण ने कुशा पर अमृत कुंभ रखा था वह प्रयाग का ही स्थल था, इसलिए पुराणों में यह स्थल तीर्थराज प्रयाग के नाम से जाना गया और अमृत कुंभ से सीधा संपर्क होने के कारण यहां कुंभ आयोजन का महत्व और बढ़ गया.