साहित्य की दुनिया में जब कोई नई आवाज उभरती है, जो दिल से लिखती है, आत्मा से बोलती है, और जिंदगी के कड़वे-मीठे सच को भावनाओं के जरिए परोसती है, तो वह पाठकों के दिलों में जगह बना लेती है. बानू मुश्ताक ऐसी ही एक लेखिका हैं, जिन्होंने अपनी किताब ‘हार्ट लैंप’ के लिए प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार जीता है. यह जीत सिर्फ एक व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं, बल्कि भारतीय मुस्लिम महिला लेखिकाओं की आवाज को एक नया मुकाम देने जैसा है.
आजतक ने बानू मुश्ताक से बातचीत की, जहां उन्होंने अपनी किताब, अपने लेखन के पीछे छिपे भाव, समाज, राजनीति, और सोशल मीडिया पर बेबाक अंदाज़ में अपने विचार साझा किए.
‘मैं रिसर्च नहीं, इमोशन्स से लिखती हूं
बानू ने शुरुआत में ही यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी कहानियां किसी डेटा या रिसर्च की उपज नहीं हैं, बल्कि वे सीधे दिल से निकलती हैं. उन्होंने कहा कि, ‘मैं ज़्यादा रिसर्च नहीं करती. मुझे जितना मालूम है, उसी के आधार पर लिखती हूं. इमोशन्स को मैं फैक्ट्स से ज़्यादा तरजीह देती हूं. मेरा मकसद है दिल से लिखना ताकि वो दिल तक पहुंचे.’
उनका मानना है कि कहानी की ताक़त उसकी सच्चाई में नहीं, उसकी संवेदनाओं में होती है. इसी वजह से उन्होंने बुकर पुरस्कार के लिए नामांकन का भी कभी सपना नहीं देखा था.’मैंने तो सोचा भी नहीं था कि मेरी किताब बुकर तक पहुंचेगी. लेकिन शायद जो दिल से लिखा जाता है, वो दूर तक पहुंचता है.’
मुस्लिम जीवन और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी का चित्रण
बानू की कहानियों में मुस्लिम समाज की आम दिनचर्या की झलक मिलती है. अजान से दिन की शुरुआत, रिश्तों की बुनावट, घर की महिलाएं ये सब उनके लेखन में बेहद सहजता से आते हैं.
‘अजान से एक आम मुस्लिम आदमी या औरत का दिन शुरू होता है. यही रूटीन मैंने अपनी कहानी में दिखाया. किसी और लेखक की किताब से तुलना नहीं कर सकती क्योंकि मैंने वो पढ़ी ही नहीं है. मैं अपने ‘हार्ट लैंप’ से रोशनी लेती हूं.’
ताजमहल से ‘शाहिस्ता महल’ तक- प्रेम की विडंबना
उनकी कहानी में ‘शाहिस्ता महल’ नाम का एक प्रतीकात्मक महल आता है, जो ताजमहल की तरह प्रेम का प्रतीक नहीं, बल्कि धोखे का निशान है. ‘ताजमहल एक बीवी के लिए बनाए गए प्यार का प्रतीक है. लेकिन मेरी कहानी में शाहिस्ता महल एक ऐसे धोखे का प्रतीक है जिसमें पत्नी का शोषण हुआ. वो एक प्यार नहीं था, एक धोखा था.’
क्या ये कहानियां निजी जिंदगी से जुड़ी हैं?
‘बिल्कुल नहीं. मेरी ज़िन्दगी बहुत खुशहाल है. मैंने अपनी पसंद से शादी की, मेरे बच्चे वेल-एजुकेटेड और सेटल्ड हैं. मुझे पूरी आज़ादी मिली है.’ बावजूद इसके, बानू आराम की ज़िन्दगी में रहकर भी समाज से जुड़ने का फैसला करती हैं. ‘मैं आराम से रह सकती थी, लेकिन रहना नहीं चाहती. मैं आम लोगों के बीच रहना चाहती हूं, उनके साथ रोना-हंसना चाहती हूं.’
मुस्लिम औरत और राजनीति, एक दूरी या नई पहचान?
समाज में यह धारणा बन चुकी है कि मुस्लिम महिलाएं राजनीति से दूर रहती हैं, लेकिन बानू इस बात से इत्तेफाक नहीं रखतीं. ‘राजनीति से मुस्लिम औरत का कोई लेना-देना नहीं — यह एक ग़लत स्टेटमेंट है. एक औरत घर भी चलाती है और बाहर भी काम करती है. राशन लाइन में लगना, प्लॉट के लिए एप्लिकेशन देना, यह सब पॉलिटिक्स है. पॉलिटिक्स से दूर रहना मुमकिन नहीं है.’
उनका मानना है कि हर आम आदमी की जिन्दगी राजनीति से जुड़ी होती है, मुस्लिम महिलाएं भी इससे अछूती नहीं.
ऑटोबायोग्राफी- एक औरत की जद्दोजहद
बानू इस समय अपनी आत्मकथा पर भी काम कर रही हैं, जिसमें न सिर्फ उनकी निजी ज़िन्दगी बल्कि उनके सामाजिक संघर्षों की भी झलक मिलेगी. ‘औरत की आत्मकथा में रिश्तों पर ज़्यादा ज़ोर होता है. मैंने भी अपनी फैमिली के साथ अपने इमोशनल बॉन्ड को बखूबी दिखाया है. लेकिन इसमें सोशल मूवमेंट्स और जद्दोजहद भी हैं. यह आत्मकथा बिल्कुल अलग होगी.’ वह अभी तक आधी किताब लिख चुकी
इस पुरस्कार को बानू मुश्ताक ने अपने देश को समर्पित किया है. ‘मैं इस पुरस्कार को अपने मुल्क के हर बाशिंदे को, जो देश की हिफाजत कर रहे हैं सिपाहियों को, कलाकारों को, आम आदमी को, अपने देश को समर्पित करती हूं.’