एक गंदी मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है… 32 साल के सूरज का गुस्सा इन शब्दों में साफ झलकता है. ये दर्द है उन लाखों भक्तों का जो हर साल श्रावण मास में पवित्र गंगाजल लेने हरिद्वार जाते हैं. इनकी श्रद्धा को कुछेक की हरकतों ने कठघरे में खड़ा कर दिया. सूरज हरिद्वार से 237 किलोमीटर दूर शीतला माता मंदिर की ओर बढ़ रहे हैं. उनके पैरों में मोटे-मोटे छाले हैं, लेकिन मन का दर्द उससे कहीं गहरा है. सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो, न्यूज चैनलों की सुर्खियां और कुछ नेताओं के कांवड़ियों को ‘दंगाई’, ‘बेरोजगार’ और ‘आतंकी’ जैसे ताने उनको पूरे बदन में कांटे की तरह चुभ रहे हैं.
दरअसल, देश के कई हिस्सों से कांवड़ियों के कुछ समूहों द्वारा तोड़फोड़, रोड रेज और अराजकता की खबरें आईं. इन घटनाओं की गूंज ने उन लाखों भक्तों पर भी सवाल उठा दिए जो श्रद्धा के साथ नंगे पांव सफर कर रहे हैं, बिना किसी दिखावे के.
‘हमपर मीम्स बन रहे हैं, लोग कह रहे हैं कांवड़िए दंगाई हैं… क्या हमारी श्रद्धा इतनी सस्ती है?’ ये कहते हुए नांगलोई के रोहित (24 साल) की आवाज थोड़ी कांप जाती है. वह हरिद्वार से अपने कंधों पर पूरा 51 लीटर जल लेकर आए हैं.
बेरोजगार का ताना और भक्ति का जवाब
‘कांवड़िए बेरोजगार होते हैं’, यह तंज कुछ नेताओं और लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है. लेकिन धारूहेड़ा, हरियाणा से आए 25 साल के योगेश इस बात पर हंस पड़ते हैं. ‘मेरे चाचा बीएसएफ में हैं, चाची लेक्चरर हैं. मैं खुद शीशे के दरवाजों का काम करता हूं. दुकान बंद करके बाबा की भक्ति में आया हूं.’ योगेश की बात में गर्व है, और उनके साथ चल रहे उनके चाचा-चाची इस गर्व को और मजबूत करते हैं.
पीढ़ियों की डोर, आस्था की राह
कांवड़ यात्रा कई भक्तों के लिए पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा है. दिल्ली के अभय बताते हैं कि बचपन में अपने पिता को कांवड़ लाते देख उनकी आंखों में यह सपना बसा. वहीं, श्याम सिंह को मोहल्ले के एक भैया ने पहली बार हरिद्वार की राह दिखाई. यह यात्रा उनके लिए सिर्फ जल ले जाना नहीं, बल्कि उस डोर को थामे रखना है, जो उन्हें उनके परिवार, संस्कृति और विश्वास से जोड़ती है.
‘भोले के चोर’ और सोशल मीडिया का शोर
कांवड़ यात्रा पर सोशल मीडिया का क्या असर है?…. हमारा सवाल खत्म भी नहीं हुआ था कि दिल्ली के द्वारका से आए 28 साल के शुभम चंदेला का गुस्सा फूट पड़ा. वह बोले- इसी वजह से भोले के चोर बढ़ गए हैं.
भोले के चोर? ये कौन होते हैं? सवाल लाजमी था और शुभम भी समझ गए कि हमें बात पूरी समझानी पड़ेगी. उन्होंने बताया, ‘ये वो लोग हैं जो इंस्टाग्राम-रील्स में नंबर बनाने के चक्कर में हरिद्वार से अपनी क्षमता से ज्यादा जल उठा लेते हैं. शुरू में तो दिखावे का जोश रहता है, लेकिन जब असलियत में थकान हावी होती है, तो पैदल चलने की जगह कार, ट्रक या रिक्शा पकड़ लेते हैं. कुछ तो ऐसे भी हैं जो बीच रास्ते में ही जल (कांवड़) छोड़कर भाग जाते हैं.’ शुभम मानते हैं कि ऐसे लोग न सिर्फ भोले की भक्ति का मजाक बनाते हैं, बल्कि पूरी यात्रा को बदनाम कर जाते हैं.
तंबाकू-सिगरेट पर आपस में उलझे कांवड़िया
कांवड़ शिविर कैंप में हम थोड़ा और अंदर बढ़े तो कुछ भोली, यानी महिला कांवड़ियों का समूह दिखा. यहां 45 साल की सीता से हमने बात की. वह पति और बेटे के साथ हरिद्वार से जल लेकर अब दिल्ली के रोहिणी इलाके की तरफ लौट रही थीं. चेहरा थका हुआ था, लेकिन कुछ चीजों की नाराजगी भी थी.
सीता ने बिल्कुल साफ-साफ कहा, ‘उत्तराखंड में हालत खराब है. कांवड़ कैंप तो नाम के हैं. 10 रुपये वाला बिस्कुट भी 15-20 में मिलता है. सोने के लिए गद्दे तक किराए पर लेने पड़ते हैं. और मोबाइल चार्जिंग? उसका भी 20-30 रुपये प्रति घंटे मांगा जाता है.’
सीता की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि पीछे खड़े कुछ कांवड़िए तुरंत बोल पड़े, ‘हां, गुटखे-सिगरेट भी महंगे मिल रहे हैं!’ इस पर सीता का पारा चढ़ गया. आंखों में नाराजगी लिए पलटकर बोलीं, ‘तो यात्रा में इन सब चीजों का क्या काम?’
लेकिन जवाब भी तैयार था. उन कांवड़ियों ने बिना झिझक एकसुर में कहा, ‘आदत है मैडम, कैसे छोड़ें! वैसे भी हम इनका सेवन तभी करते हैं जब कांवड़ को झुला (आराम करने के लिए कहीं टांगना) देते हैं.’ इस टकराव भरे पल में भक्ति, आदत और तर्क—तीनों आमने-सामने खड़े थे. यात्रा में आस्था जितनी सच्ची दिखी, उतनी ही इंसानी कमजोरियां भी खुलकर सामने आईं.
मारपीट की घटनाओं के लिए कौन जिम्मेदार?
चलिए, मान लिया कि कांवड़िए आस्था के रास्ते पर भारी कष्ट झेलते हैं. सब सहकर ये यात्रा पूरी करते हैं. लेकिन क्या इसकी आड़ में मारपीट, गुंडागर्दी और ट्रैफिक जाम जैसे वीडियो, जो हर साल वायरल होते हैं, उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है?
इस सवाल पर दिल्ली के घोंडा इलाके से आए राहुल ठाकुर कहते हैं, ‘ऐसी घटनाएं ज़्यादातर उत्तराखंड में होती हैं. वहां कांवड़ियों के लिए अलग रूट्स ठीक से तय नहीं हैं. कई बार गाड़ियों की चपेट में आकर कांवड़ खंडित हो जाती है, और फिर मामला गरम हो जाता है.’
हालांकि, कुछ भोले खुले दिल से मानते हैं कि गलती कई बार अपनी भी होती है. तय रूट छोड़कर ट्रैफिक वाले रास्ते पर चलना, जानबूझकर दूसरों को परेशानी में डालना—इन वजहों से कई बार विवाद पैदा होते हैं. यानी आस्था की इस यात्रा में व्यवस्था की नहीं, जिम्मेदारी की भी परीक्षा चल रही होती है.
पूरी बातचीत के बाद एक बात साफ हो गई… इन भक्तों के मन में शिकायतें तो हैं, लेकिन शिकस्त नहीं. कहीं प्रशासन की ढीली व्यवस्था उन्हें परेशान करती है, तो कहीं अपने ही कुछ साथियों की लापरवाही और सोशल मीडिया पर होने वाली ट्रोलिंग मन को चोट पहुंचाती है.
लेकिन रास्ते में मिलने वाला अजनबियों का प्यार, सहारा और भोलेनाथ की भक्ति की ताकत उनके थके कदमों को फिर से चलने की हिम्मत देती है. सूरज, रोहित, योगेश, सीता और शुभम जैसे लाखों भक्तों के लिए कांवड़ यात्रा सिर्फ एक रस्म नहीं, बल्कि एक विश्वास है- जो उन्हें हर साल हरिद्वार की राह पर खींच लाता है.