युद्ध के दौरान ब्लैकआउट क्या होता है? गाड़ियों की लाइट पर काले रंग से लेकर घर की बत्ती तक लागू होते हैं ये नियम

युद्ध के समय ब्लैकआउट एक ऐसी रणनीति है, जिसमें कृत्रिम रोशनी को न्यूनतम किया जाता है. ताकि दुश्मन के विमानों या पनडुब्बियों को निशाना ढूंढने में कठिनाई हो. यह प्रथा मुख्य रूप से 20वीं सदी में द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान प्रचलित थी.

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ब्लैकआउट नियम घरों, कारखानों, दुकानों और वाहनों की रोशनी को नियंत्रित करते थे, जिसमें खिड़कियों को ढंकना, स्ट्रीट लाइट्स बंद करना. वाहनों की हेडलाइट्स पर काला रंग या मास्क लगाना शामिल था.

ब्लैकआउट का उद्देश्य

ब्लैकआउट का मुख्य उद्देश्य दुश्मन के हवाई हमलों को मुश्किल बनाना था. रात के समय शहरों की रोशनी दुश्मन के पायलटों के लिए निशाना ढूंढने में सहायक होती थी. उदाहरण के लिए, 1940 के लंदन ब्लिट्ज के दौरान, जर्मन लूफ्टवाफे ने ब्रिटिश शहरों पर रात में बमबारी की. रोशनी को कम करके नेविगेशन और टारगेटिंग को जटिल किया गया. तटीय क्षेत्रों में ब्लैकआउट जहाजों को दुश्मन की पनडुब्बियों से बचाने में मदद करता था, जो तट की रोशनी के खिलाफ जहाजों की सिल्हूट देखकर हमला करते थे.

ब्लैकआउट नियम: घरों और इमारतों के लिए

खिड़कियों और दरवाजों को ढंकना: 1 सितंबर, 1939 को ब्रिटेन में युद्ध की घोषणा से पहले ब्लैकआउट नियम लागू किए गए. सभी खिड़कियों और दरवाजों को रात में भारी पर्दों, कार्डबोर्ड या काले रंग से ढंकना अनिवार्य था ताकि कोई भी रोशनी बाहर न निकले. सरकार ने इन सामग्रियों की उपलब्धता सुनिश्चित की.

स्ट्रीट लाइट्स: सड़क की सभी बत्तियां बंद कर दी जाती थीं. या उन्हें काले रंग से आंशिक रूप से रंगा जाता था ताकि रोशनी नीचे की ओर रहे. लंदन में 1 अक्टूबर, 1914 को मेट्रोपॉलिटन पुलिस कमिश्नर ने बाहरी रोशनी को बंद करने या मंद करने का आदेश दिया था.

दुकानें और कारखाने: कारखानों में बड़े कांच के छतों को काले रंग से रंगा जाता था, जिससे दिन के उजाले में भी प्राकृतिक रोशनी कम हो जाती थी. दुकानों को डबल “एयरलॉक” दरवाजे लगाने पड़ते थे ताकि ग्राहकों के आने-जाने पर रोशनी बाहर न निकले.

वाहनों के लिए ब्लैकआउट नियम

वाहनों की रोशनी को नियंत्रित करने के लिए सख्त नियम थे, क्योंकि हेडलाइट्स की रोशनी दुश्मन के विमानों को आबादी वाले क्षेत्रों या कारखानों की ओर मार्गदर्शन कर सकती थी. ब्रिटेन में लागू नियम इस प्रकार थे…

हेडलाइट्स पर मास्क: केवल एक हेडलाइट का उपयोग अनुमति थी, जिस पर तीन क्षैतिज स्लिट वाला मास्क लगाना पड़ता था. यह रोशनी को सीमित करता था ताकि जमीन पर केवल थोड़ी रोशनी पड़े.

रियर और साइड लाइट्स: रियर लैंप में केवल एक इंच व्यास का छेद हो सकता था, जो 30 गज की दूरी से दिखाई दे लेकिन 300 गज से नहीं. साइड लैंप को मंद करना और हेडलाइट के ऊपरी हिस्से को काले रंग से रंगना अनिवार्य था.

व्हाइट पेंट: वाहनों के बंपर और रनिंग बोर्ड पर सफेद मैट पेंट लगाया जाता था ताकि जमीन से दृश्यता बढ़े लेकिन ऊपर से नहीं दिखे.

स्पीड लिमिट: रात में ड्राइविंग के खतरों के कारण 32 km प्रति घंटे की गति सीमा लागू की गई.

अतिरिक्त नियम: वाहनों में कोई आंतरिक रोशनी नहीं होनी थी, रिवर्सिंग लैंप निषिद्ध थे. पार्किंग के दौरान इग्निशन की चाबी निकालना और दरवाजे लॉक करना अनिवार्य था.

ब्लैकआउट का कार्यान्वयन और निगरानी

ब्लैकआउट नियमों का पालन सुनिश्चित करने के लिए नागरिक एयर रेड प्रीकॉशन्स (ARP) वार्डन तैनात किए गए. ये वार्डन रात में गश्त करते थे. किसी भी इमारत या वाहन से रोशनी की झलक दिखने पर कार्रवाई करते थे. उल्लंघन करने वालों को भारी जुर्माना या अदालत में पेशी का सामना करना पड़ता था. ब्रिटेन में एक महिला को ब्लैकआउट नियम तोड़ने और ईंधन बर्बाद करने के लिए £2 का जुर्माना देना पड़ा.

ब्लैकआउट के प्रभाव

ब्लैकआउट ने नागरिक जीवन पर गहरा प्रभाव डाला. इसके कुछ प्रमुख प्रभाव इस प्रकार थे…

सड़क दुर्घटनाओं में वृद्धि: सितंबर 1939 में ब्रिटेन में सड़क दुर्घटनाओं से 1130 मौतें हुईं, जो पिछले वर्ष के समान महीने में 544 थीं. अंधेरे के कारण पैदल यात्रियों और वाहन चालकों को दृश्यता कम होने से दुर्घटनाएं बढ़ीं.

एक अनुमान के अनुसार, लूफ्टवाफे को हवा में बिना उड़ान भरे हर महीने 600 ब्रिटिश नागरिकों की जान लेने का मौका ब्लैकआउट नियमों ने दिया. पैदल यात्रियों को सफेद अखबार या रूमाल ले जाने की सलाह दी गई ताकि वे अधिक दिखाई दें.

नागरिक जीवन पर प्रभाव: ब्लैकआउट ने रोजमर्रा की गतिविधियों को बाधित किया. लोग रात में बाहर निकलने से डरते थे, जिससे सामाजिक और आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हुईं.

कारखानों में काले रंग की छतों के कारण कर्मचारियों को दिन-रात कृत्रिम रोशनी में काम करना पड़ता था, जिससे उनका मनोबल गिरा और बिजली बिल बढ़े. दुकानों को जल्दी बंद करना पड़ता था, और ग्राहकों के लिए प्रवेश-निकास जटिल हो गया.

अपराध और अन्य खतरे: अंधेरे का फायदा उठाकर छोटे-मोटे अपराध, जैसे जेबकट्टरी और फसल चोरी बढ़ गए. बंदरगाहों पर व्यापारी नाविकों के रात में पानी में गिरने और डूबने की घटनाएं दर्ज की गईं.

मनोबल पर प्रभाव: ब्लैकआउट युद्ध के सबसे अलोकप्रिय पहलुओं में से एक था. इसने नागरिकों के मनोबल को कम किया और व्यापक शिकायतों को जन्म दिया. हालांकि, ब्लैकआउट ने एकजुटता की भावना भी पैदा की, क्योंकि यह नागरिकों की सामूहिक जिम्मेदारी थी.

तथ्य और आंकड़े

ब्रिटेन में ब्लैकआउट की शुरुआत: 1 सितंबर 1939 को युद्ध की घोषणा से पहले.

सड़क मृत्यु दर: सितंबर 1939 में 1130 सड़क मृत्यु, पिछले वर्ष की तुलना में दोगुनी.

गति सीमा: रात में 32 km प्रति घंटे.

अमेरिका में ब्लैकआउट: पर्ल हार्बर हमले (7 दिसंबर, 1941) के बाद पश्चिमी और पूर्वी तटों पर लागू.

डिम-आउट: सितंबर 1944 में ब्रिटेन में शुरू जिसमें चांदनी के बराबर रोशनी की अनुमति थी.

पूर्ण रोशनी की बहाली: अप्रैल 1945 में जब बिग बेन को 5 साल और 123 दिनों बाद फिर से रोशन किया गया.

अमेरिका में असफलता: अलास्का के एंकरेज में ब्लैकआउट नियमों का पालन कम हुआ, जहां दुकानें और वाहन रोशनी चालू रखते थे.\

ब्लैकआउट की प्रभावशीलता पर विवाद

कुछ इतिहासकार, जैसे एम. आर. डी. फूट तर्क देते हैं कि ब्लैकआउट ने बमवर्षकों के नेविगेशन को ज्यादा प्रभावित नहीं किया, क्योंकि पायलट जल निकायों, रेल पटरियों और राजमार्गों जैसे प्राकृतिक और कृत्रिम लैंडमार्क्स पर ध्यान केंद्रित करते थे. ब्लैकआउट ने तटीय क्षेत्रों में जहाजों को पनडुब्बी हमलों से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. अमेरिका के अटलांटिक तट पर ब्लैकआउट की कमी ने मित्र देशों के जहाजों को जर्मन यू-बोट्स के लिए आसान निशाना बना दिया, जिसे जर्मन नाविकों ने “दूसरा हैप्पी टाइम” कहा.

आधुनिक संदर्भ में ब्लैकआउट

हाल के समय में ब्लैकआउट नियमों की प्रासंगिकता क्षेत्रीय तनावों के संदर्भ में देखी जा सकती है. 5 मई 2025 को X पर एक पोस्ट में बताया गया कि भारत-पाकिस्तान तनाव के बीच पंजाब के फिरोजपुर में ब्लैकआउट अभ्यास शुरू हुआ. हालांकि, आधुनिक युद्ध में सैटेलाइट और रडार तकनीक के कारण ब्लैकआउट की प्रभावशीलता कम हो सकती है. फिर भी यह रणनीति आपातकालीन तैयारियों और नागरिक सुरक्षा का हिस्सा बनी हुई है.

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