बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने पारिवारिक मामलों की कोर्ट के 2020 के उस आदेश को खारिज कर दिया है, जिसमें एक बच्चे की वैधता तय करने के लिए डीएनए टेस्ट कराने का निर्देश दिया गया था. यह बच्चा 2013 में एक ऐसे जोड़े के विवाह के दौरान जन्मा था जो उस समय अलग रह रहे थे. जस्टिस आर.एम. जोशी ने 1 जुलाई को यह फैसला सुनाया.
यह याचिका महिला और बच्चे की ओर से दायर की गई थी, जिसमें पारिवारिक न्यायालय द्वारा पारित उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें पति की डीएनए टेस्ट कराने की मांग को स्वीकार कर लिया गया था ताकि जुलाई 2013 में जन्मे बच्चे की वैधता तय की जा सके.
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पीठ ने कहा कि पारिवारिक न्यायालय ने तथ्यों और कानून दोनों में स्पष्ट रूप से गलती की जब उसने पति की डीएनए टेस्ट की मांग को स्वीकार कर लिया, जबकि पति ने कभी भी अपने औपचारिक याचिका में पितृत्व से इनकार नहीं किया था.
इस मामले में पति-पत्नी का विवाह 18 दिसंबर 2011 को हुआ था. जनवरी 2013 में पत्नी गर्भवती अवस्था में matrimonial home (ससुराल) छोड़कर चली गई थी. बच्चा जुलाई 2013 में जन्मा. पति ने पत्नी पर विवाहेतर संबंध, क्रूरता और परित्याग के आधार पर तलाक की याचिका दायर की, लेकिन उसने अपनी याचिका में कभी पितृत्व से इनकार नहीं किया. 2020 में, ट्रायल के दौरान, पति ने बच्चे की वैधता को चुनौती देने के लिए डीएनए टेस्ट की मांग की, जिसे पारिवारिक न्यायालय ने स्वीकार कर लिया.
पारिवारिक न्यायालय के इस आदेश को रद्द करते हुए जस्टिस जोशी ने कहा, “जब तक पति यह दावा नहीं करता कि वह उस बच्चे का पिता नहीं है और यह साबित नहीं करता कि उसे पत्नी तक कोई पहुंच नहीं थी, तब तक बच्चे की पितृत्व तय करने का सवाल ही नहीं उठता.”
न्यायाधीश ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 के तहत बच्चे की वैधता की जो धारणा है, वह बहुत मजबूत है और इसे केवल स्पष्ट, ठोस और निर्णायक सबूत के द्वारा ही खंडित किया जा सकता है, जिससे यह साबित हो कि गर्भधारण की अवधि के दौरान पति की पत्नी तक कोई पहुंच नहीं थी.
जस्टिस जोशी ने पारिवारिक न्यायालय की उस दलील की भी आलोचना की, जिसमें पत्नी की जिरह के दौरान दिए गए उस बयान को सहमति माना गया, जिसमें उसने कहा था कि अगर अदालत कोई आदेश पारित करती है, तो वह उसका पालन करेगी.
जज ने कहा, “सिर्फ इसलिए कि कोई गवाह कहे कि अगर कोई आदेश पारित हुआ तो वह उसका पालन करेगी, इसे इस रूप में नहीं देखा जा सकता कि उसने अपने बच्चे के डीएनए टेस्ट के लिए सहमति दी है. यहां तक कि अगर तर्क के लिए मान भी लिया जाए कि पत्नी ने इस मांग पर सहमति जताई, तब भी न्यायालय के लिए यह अनिवार्य था कि वह बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखे.”
अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से यह सावधानी दी गई है कि डीएनए टेस्ट का आदेश तभी दिया जाना चाहिए जब वह अत्यंत आवश्यक हो.