प्रतापपुर के जंगलों में किसका खेल? जेसीबी से उजड़ी हरियाली, हाथियों का बसेरा तबाह

सूरजपुर: बरसात का मौसम आते ही प्रतापपुर के जंगलों को नई हरियाली से लहलहाना चाहिए था, लेकिन आज वहां वीरानी पसरी है. जंगलों की शांति, जहां कभी पक्षियों की चहचहाहट और हाथियों की चिंघाड़ सुनाई देती थी, अब जेसीबी और ट्रैक्टर की गड़गड़ाहट में दब गई है. ऐसा लग रहा है मानो जंगल की आत्मा को नोचकर खेतों में बदलने का काला खेल खेला जा रहा हो.

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सिलौटा चट्टीपारा नदी किनारे से लेकर खुडेनडांड, चन्द्रेली, सोनपुर, मसगा, टुकुडॉड़ और सेमराखुर्द तक हरियाली का सफाया किया जा रहा है. ग्रामीण बताते हैं कि सैकड़ों छोटे-बड़े पेड़ रोजाना उखाड़कर ट्रैक्टर में ढो दिए जाते हैं और जमीन को खेती लायक बना दिया जाता है. यही वे क्षेत्र हैं जो लंबे समय से हाथियों का स्थायी बसेरा रहे हैं, लेकिन अब उनकी जमींन पर हल जोते जा रहे हैं. पर्यावरणविदों का साफ कहना है कि जंगल उजड़ेंगे तो हाथी गांवों का रुख करेंगे और यह संघर्ष आने वाले दिनों में भयावह रूप लेगा.

ग्रामीणों का आरोप है कि प्रतापपुर के रेंजर श्री मिश्रा को बार-बार शिकायत दी गई, लेकिन हर बार परिणाम शून्य ही रहा. नतीजा यह हुआ कि अब लोग साफ कहने लगे हैं कि इतनी बड़ी पैमाने पर हो रही कटाई विभाग की मिलीभगत के बिना संभव ही नहीं. ग्रामीणों का गुस्सा इस बात पर है कि विभाग आंख मूंदकर तमाशा देख रहा है और उनकी पीड़ा को सुनने वाला कोई नहीं है.

जब इस मामले पर एसडीओ वन विभाग संस्कृति बारले से सवाल किया गया तो उन्होंने माना कि यह गंभीर मामला है और जांच की जाएगी. लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि जांच के नाम पर हर बार सिर्फ लीपापोती की जाती है, सच्चाई कभी सामने नहीं आती. उनकी मांग है कि प्रतापपुर वन सर्कल में विशेष अभियान चलाकर पूरे इलाके की सर्चिंग की जाए और उन सभी लोगों को चिन्हित कर कठोर कार्रवाई की जाए जिन्होंने जंगल को उजाड़कर खेती का खेल खेला है.

आज स्थिति यह है कि प्रतापपुर की हरियाली वन विभाग की लापरवाही और मिलीभगत की बलि चढ़ रही है. यह सिर्फ पेड़ों का विनाश नहीं, बल्कि हाथियों के स्थायी बसेरे का उजड़ना भी है. अगर यही हाल रहा तो आने वाले वर्षों में यह इलाका मानव और हाथियों के बीच संघर्ष का सबसे बड़ा अड्डा बन जाएगा, जहां सबसे पहले इसकी कीमत ग्रामीणों को ही चुकानी पड़ेगी.

यह तस्वीर सिर्फ जंगल उजड़ने की नहीं है, बल्कि आने वाले संकट की दस्तक भी है. अगर प्रशासन ने अब भी कठोर कदम नहीं उठाए, तो प्रतापपुर के जंगलों का नाम किताबों और यादों में ही बचेगा और हाथियों का ठिकाना हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा.

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