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शिवजी पर क्यों चढ़ाया जाता है जल, क्या है महाकुंभ से कनेक्शन? जानिए ये कहानी 

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज का संगम तट श्रद्धालुओं के स्वागत के लिए तैयार है. गंगा-यमुना के साथ अदृश्य सरस्वती के मिलन का ये पावन तट सदियों पुरानी उस परंपरा और विरासत का साक्षी बनने वाला है, जिसने ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ जैसा मंत्र दिया है. संगम तट पर स्नान की परंपरा महज धार्मिक आस्था और रिवाज का अनुपालन नहीं है, बल्कि यह एकजुट होने की संस्कृति है. अपने समाज से घुलने-मिलने का जरिया है. यह तट वह जगह है, जहां सारे आवरण मिट जाते हैं और सिर्फ ‘हर हर गंगे’ के समवेत स्वर आकाश में गूंजते हैं. एकता का यही समागम सभ्यताओं का निचोड़ है और मानवता जो जीवित रखने वाला अमृत है.

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अमृत की खोज का परिणाम है महाकुंभ का आयोजन

महाकुंभ का आयोजन इसी अमृत की खोज का परिणाम है. इसके लिए सदियों पहले सागर के मंथन का उपक्रम रचा गया था. मंदार पर्वत की मथानी बनी, वासुकी नाग की रस्सी बनाई गई और जब यह मंदार पर्वत सागर में समाने लगा तो उसे स्थिर करने के लिए भगवान विष्णु ने कूर्म (कछुआ) अवतार लिया. उन्होंने मंदार पर्वत को अपनी पीठ पर स्थिर किया और फिर सागर मंथन शुरू हो सका.

नागराज वासुकि की रस्सी और मंदार पर्वत की मथानी

एक तरफ से देवता वासुकि को अपनी ओर खींच रहे थे और दूसरी ओर से असुर. सागर के बीच में मंदार पर्वत एक स्पिन व्हील की तरह घूमता रहा. इस प्रक्रिया को कई दिन बीत गए. मंदार पर्वत मंथर गति से सागर में घूमता रहा. देवता-असुर वासुकि नाग की रस्सी को अपनी-अपनी ओर खींचते हुए मंथन के लिए श्रम करते रहे. अभी तक सागर तल से कुछ बाहर नहीं निकला था. मंथन की प्रक्रिया जारी थी. इसी बीच एक दिन सागर तल से तेज गंध युक्त ज्वार उठा. फिर तो पूरे विश्व में अंधकार छा गया. देवता-असुर सभी विष के प्रभाव से जलने लगे. धरती पर भूचाल आ गया और प्रकृति की हवा जहरीली होने लगी.

सबसे पहले निकला हलाहल विष

इस विष को कौन साधे? इसका प्रभाव कैसे कम हो और संसार की रक्षा कौन करे? अमृत की खोज में जुटे सभी लोग, उसे पाने की प्रक्रिया से निकले विष को देखकर भागने लगे थे. समुद्र मंथन से प्राप्त हुआ यह पहला रत्न था, लेकिन इसे लेने के लिए कोई भी तैयार नहीं था. हालांकि असुरों ने जिद की थी जो भी रत्न सबसे पहले निकलेगा उस पर पहले उनका अधिकार होगा. उन्हें लगा था कि सागर मंथन होते ही पहले अमृत ही निकल आएगा और इसके बाद मंथन की जरूरत ही नहीं होगी. इसलिए उन्होंने मंथन की हामी भरने से पहले ये शर्त रखी थी कि जो रत्न निकलेगा, उस पर उनका अधिकार होगा. इस नियम के तहत विष उन्हें ग्रहण करना चाहिए था, लेकिन उन्हें इससे साफ मना कर दिया.

सर्पों ने दिया शिवजी का साथ

देवताओं में भी कोई इसे पीने को तैयार नहीं हुआ. तब महादेव आए. वह संसार के योगीश्वर हैं. हर शाप-ताप और अग्नि का शमन करने वाले हैं. उनके लिए न विष कोई मायने रखता है और न अमृत. वह इन सबसे परे हैं. संसार के कल्याण के लिए उन्होंने विष को पी लिया और कंठ में ऊपर की ओर रोक लिया. विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया और महादेव नीलकंठ कहलाए. जब वह विषपान कर रहे थे, तब उसकी कुछ बूंदें जो धरती पर गिरीं उन्हें सांप-बिच्छू और ऐसे ही अन्य जीवों ने पी लिया. पुराण कथाएं कहती हैं कि ये जीव महादेव का कार्य सरल बनाने आए थे. इसलिए उन्होंने भी उनके समान जहर धारण किया और उस दिन से विषैले हो गए.

महादेव का किया गया जलाभिषेक

विष के प्रभाव को शांत करने के लिए महादेव को शीतल करने के लिए कई बार उनका जल से अभिषेक किया गया. घड़े भर-भर कर उन्हें स्नान कराया गया. कहते हैं कि तभी से शिवजी के जलाभिषेक की परंपरा चल पड़ी. उन्हें हर शीतल औषधियां दी गईं. भांग, जिसकी तासीर ठंडी होती है और जो प्रबल निश्चेतक भी है. वह पिलाया गया. धतूरा, मदार आदि का लेप किया गया. दूध-दही, घी सभी पदार्थ उन पर मले गए. इस तरह महादेव विष के प्रभाव को रोक सके और संसार को नष्ट होने से बचाव लिया. अब सागर तट पर एक ही आवाज गूंज रही थी. हर-हर महादेव, जय शिव शंकर.

समुद्र मंथन प्राप्त हुए ये 14 रत्न

समुद्र मंथन से 14 रत्न प्राप्त हुए, उनके संबंध में श्लोक है.  

हलाहलं च महामेघं चन्द्रमांसुर्यचं रणे,

उच्छैश्रवसमाणोऽयमादित्यं च वरुणं तथा.

पद्मं च कांचनं च यं च मणिं कालकलंकितं.

सिद्धिं लक्ष्मीमुपागतं च कुमकुमं च रत्नतः.

एरावतं च रत्नं च कांचनं स्वर्णं च तत्र ,

तत्रैव अमृतं च प्राप्तं सर्वसत्त्वं शमं यथा.

कालकूट विष, चंद्रमा, हाथी और घोड़े

इस श्लोक के अनुसार समुद्र मंथन से सबसे पहले हलाहल या कालकूट विष निकला. फिर सूर्य और चंद्रमा नक्षत्र दोनों ही एक साथ निकले. उच्चैश्रवा नाम का सफेद तेज दौड़ने वाला घोड़ा भी प्राप्त हुआ. इसी मंथन से पद्म यानि दिव्य कमल, फिर स्वर्ण और कौस्तुभ मणि प्राप्त हुई. फिर वारुणि नाम की मदिरा, इसके बाद लक्ष्मी के साथ सिद्धि और उन्हीं के साथ सौभाग्य सूचक कुमकुम भी मंथन से बाहर निकला. दिव्य सफेद हाथी, जिसके चार दांत थे और पीठ पर स्वर्ण का हौदा शोभायमान था ऐसा ऐरावत भी प्रकट हुआ. सबसे आखिरी में धन्वन्तरि देव अमृत कुंभ लेकर प्रकट हुए.

पारिजात पुष्प, रंभा अप्सरा

हालांकि मंथन में और भी रत्न प्राप्त हुए. इनमें से कहा जाता है कि कल्पवृक्ष नाम का ऐसा पेड़ भी सागर मंथन से निकला, जो हर कल्पना को साकार कर देता था. इसी मंथन से पारिजात नाम के पुष्प का पेड़ भी प्राप्त हुआ. देवी लक्ष्मी से ठीक पहले उनकी बड़ी बहन अलक्ष्मी भी मंथन से निकलीं, जो कि देवी लक्ष्मी के उलट दरिद्रता की देवी हैं. इसी मंथन से रंभा नाम की एक अप्सरा भी निकली, जिसे स्वर्ग में स्थान मिला और यह इंद्र की सभा में सबसे सुंदर अप्सरा थी. वह आगे चलकर कई पौराणिक कथाओं में मेनका और उर्वशी की ही तरह मुख्य किरदार के तौर पर नायिका बनकर उभरती है.

इसके अलावा, समुद्र मंथन से क्या-क्या मिला, इसे लेकर एक प्रचलित छंद भी है.

श्री रंभा विष वारुणी, अमिय शंख गजराज,

धन्वन्तरि, धनु, धेनु, मणि, चंद्रमा, वाजि

इसमें श्री यानी लक्ष्मी, रंभा यानी अप्सरा, हलाहल विष, वारुणी मदिरा, अमिय यानी अमृत, शंख (पांचजन्य) गजराज (ऐरावत), धन्वन्तरि (आयुर्वेद के जनक), धनु (विष्णु का सारंग धनुष) धेनु (कामधेनु गाय), मणि (कौस्तुभ मणि), चंद्रमा, वाजियानी घोड़ा (उच्चैश्रवा) प्राप्त हुए थे.

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